रायपुर। वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर कल 10 नवम्बर 2022 को सर्वोच्च न्यायालय में अंतिम सुनवाई होनी है और फिर 16 लाख आदिवासी परिवारों का भविष्य ‘सुप्रीम’ फैसले पर टिक जाएगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय कथित ‘अपात्र’ आदिवासियों को वनों से बेदखल करने के अपने पहले के आदेश पर कायम रहती है, तो पूरे देश भर में 80 लाख से एक करोड़ आदिवासियों को वनों से विस्थापित होना पड़ेगा। चूंकि राज्यों द्वारा यह विस्थापन ‘बलपूर्वक’ किया जाएगा, पहले से ही संकटग्रस्त भारतीय समाज में एक नया संकट व असंतोष और पैदा होगा।
पूरे देश में आदिवासी समुदाय अलग-अलग कारणों से अपने-अपने राज्यों में आंदोलित है। इन कारणों में प्रमुख है कि संविधान में उल्लेखित अधिकारों से आज भी आदिवासी समुदाय या तो वंचित है या फिर इनका सही ढंग से क्रियान्वयन ही नहीं किया जा रहा है। आज भी आदिवासी समुदायों की आजीविका वनों पर ही निर्भर है। इस निर्भरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 70% अति सघन वन क्षेत्रों में से 73% आदिवासी क्षेत्रों में आते हैं। इसलिए ऐसा विस्थापन उनके ‘जीवन-अस्तित्व’ के सवाल से जुड़ जाता है। इस मामले में वे राज्य का संरक्षण मिलने के प्रति भी आश्वस्त नहीं है, क्योंकि राज्य तो कॉरपोरेटो को संरक्षण दे रहा है, जो जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट के लिए वनों से आदिवासियों को बेदखल करना चाहते हैं। यदि वनाधिकार कानून का सही क्रियान्वयन होता, तो आज 1.77 लाख गांवों में स्थित 400 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन क्षेत्र ग्राम सभाओं के अधीन हो जाता, लेकिन अब तक केवल इस वन भूमि का 3 से 5 प्रतिशत ही ग्राम सभाओं के हाथों में गया है। सरकार की ही रिपोर्ट है कि वर्ष 2008 से 2019 के बीच लगभग 2.53 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि का डायवर्सन किया गया है और इसे कॉर्पोरेटों को सौंप दिया गया है, जबकि कोरोना काल ही में 5 लाख से ज्यादा वनाधिकार दावे खारिज कर दिए गए हैं।
13 फरवरी 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को आदेश दिया था कि वे उन सभी आदिवासियों को वन भूमि से बेदखल करें, जिनके वनाधिकार दावे खारिज कर दिए गए हैं। इस आदेश के खिलाफ पूरे देश में आदिवासी संगठनों और उनके हित चिंतकों ने आंदोलन किया था, जिसके दबाव में जनजातीय मामलों के मंत्रालय को सक्रिय होना पड़ा था और उसके हस्तक्षेप के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश पर 28 फरवरी को स्थगन आदेश जारी कर दिया था। इसके साथ ही न्यायालय ने चार माह के अंदर अस्वीकृत दावों की समीक्षा करने और राज्यों को हलफनामा दायर करने का भी आदेश दिया था।
पूरे प्रकरण में यह बात उभरकर सामने आई थी कि आदिवासियों के हितों के संरक्षण के मामले में न तो भाजपा की केंद्र सरकार चिंतित थी और न ही राज्यों की सरकारें। भाजपा कभी भी दिल से वनाधिकार कानून या मनरेगा के पक्ष में नहीं रही है, लेकिन ये दोनों कानून कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग राज में बने थे, इसलिए कांग्रेस शासित राज्यों का इन कानूनों के प्रति उदासीन रवैया विचित्र है। वर्ष 2019 में भी राहुल गांधी के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार सुप्रीम कोर्ट में मामले पर सही ढंग से हस्तक्षेप नहीं कर पाई थी और आज तक उसने आदिवासियों के पक्ष में अपना हलफनामा जमा करके यह नहीं बताया है कि समीक्षाधीन प्रकरणों की क्या स्थिति है, जबकि झारखंड और मध्यप्रदेश सहित 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपना हलफनामा जमा कर दिया है।
लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच नामक संगठन से जुड़े शोधकर्ता पृथ्वीराज रूपावत की *’वायर’* में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार फरवरी 2019 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने बेदखली का आदेश जारी किया था, तब खारिज व्यक्तिगत दावों और सामुदायिक दावों की संख्या क्रमशः 17.10 लाख और 45045 थी। कोर्ट के आदेश के अनुसार इन खारिज दावों की पुनः समीक्षा के बाद आज इनकी संख्या क्रमशः 16.33 लाख और 40422 है। उनका कहना है कि दावों की समीक्षा या तो ठीक से की नही गई या वन विभाग के पक्ष में निपटा दी गई और खारिजी के निर्दिष्ट कारण बताते हुए दावेदार और ग्राम सभा को सूचित करने की प्रक्रिया तो अपनाई ही नहीं गई। स्पष्ट है कि कोर्ट के आदेश के बावजूद भी समीक्षा की पूरी प्रक्रिया दोषपूर्ण रही और इसका खामियाजा आदिवासी समुदाय को ही भुगतना पड़ेगा।
जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है, यहां वनाधिकार कानून बनने के बाद से अभी तक केवल 4.54 लाख आदिवासियों को 3.70 लाख हेक्टेयर वन भूमि (प्रति परिवार औसतन 2 एकड़ मात्र) वितरित की गई है, जबकि इससे ज्यादा वनाधिकार दावे बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किए खारिज किए गए है। मार्च 2020 तक यहां व्यक्तिगत वनाधिकार के 8.11 लाख से ज्यादा दावे लंबित थे। जिन्हें वनाधिकार मिले हैं, पूरी जमीन पर कब्जे का वनाधिकार नहीं मिला है और उसे भी कॉर्पोरेटों के लिए छीनने का काम हो रहा है। वनाधिकार और आरक्षण के मामले में इस समय छत्तीसगढ़ के आदिवासी बड़े पैमाने पर आंदोलित है।
इसी प्रकार मध्यप्रदेश में फरवरी 2019 तक 3.49 लाख व्यक्तिगत दावों को खारिज कर दिया गया था। इन दावों की समीक्षा के बाद फिर से 2.36 लाख दावों सहित जून 2022 तक कुल 3.10 लाख दावों को खारिज कर दिया गया है।
आदिवासियों के प्रति सरकारों की बेरूखी जारी है। सर्वोच्च न्यायालय में आज तक छत्तीसगढ़ सरकार ने अपना हलफनामा जमा नहीं किया है। वनाधिकार कानून आदिवासियों के साथ सदियों से जारी ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को दूर करने के लिए बनाया गया था। सरकारों की लापरवाही और अदालतों की संवेदनहीनता के कारण यदि यह कानून खारिज हो जाता है, तो यह इस अन्याय को जारी रखने की ही घोषणा होगी।
*(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष है। संपर्क : 9424231650)*
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*Forest rights: Future of 16 lakh tribal families of the country rests on the ‘Supreme’ decision, Chhattisgarh government has not given an affidavit.*
*(Special Report : Sanjay Parate)
Raipur. The last hearing on the petitions challenging the constitutionality of the Forest Rights Act are to be heard in the Supreme Court tomorrow on November 10, 2022 and then the future of 16 lakh tribal families will rest on the ‘Supreme’ verdict. If the Supreme Court upholds its earlier order of eviction of so-called ‘ineligible’ tribals from forests, then 80 lakh to one crore tribals will have to be displaced from forests across the country. Since this displacement will be done ‘by force’ by the states, a new crisis and dissatisfaction will arise in the already troubled Indian society.
Tribal communities all over the country are agitating in their respective states for different reasons. Chief among these reasons is that even today the tribal community is deprived of the rights mentioned in the constitution or they are not being implemented properly. Even today the livelihood of tribal communities is dependent on forests. This dependence can be gauged from the fact that according to a report by the Forest Survey of India, 73% of the country’s 70% highly forested areas are in tribal areas. Hence such displacement becomes linked to the question of their ‘life-existence’. In this case, they are not even sure of getting the protection of the state, because the state is giving protection to the corporates, who want to evict the tribals from the forests for the loot of water, forest, mineral and land. If the Forest Rights Act was implemented properly, today more than 400 lakh hectares of forest area located in 1.77 lakh villages would have been under Gram Sabhas, but till now only 3 to 5 percent of this forest land has gone into the hands of Gram Sabhas. The government itself reports that between 2008 and 2019, more than 2.53 lakh hectares of forest land has been diverted and handed over to corporates, while more than 5 lakh forest rights claims have been rejected in the Corona period itself. .
On 13 February 2019, the Supreme Court ordered the states to evict all tribals whose forest rights claims have been rejected. Against this order, tribal organizations and their supporters had agitated all over the country. Under the pressure of this movement, the Ministry of Tribal Affairs had to be active and after its intervention, the Supreme Court issued a stay order on 28 February on its own order. Along with this, the court had also ordered the states to review the rejected claims and file affidavits within four months.
In the whole matter, it was revealed that neither the central government of the BJP nor the governments of the states were worried about the protection of the interests of the tribals. The BJP has never at heart been in favor of the Forest Rights Act or the MGNREGA, but both of these laws were enacted during the Congress-led UPA regime, so the indifference of Congress-ruled states towards these laws is strange. Even in the year 2019, despite the clear instructions of Rahul Gandhi, the Chhattisgarh government was not able to properly intervene in the matter in the Supreme Court and till date it has not submitted its affidavit in favor of the tribals and told what is the status of the cases under review, While 11 states and union territories including Jharkhand and Madhya Pradesh have submitted their affidavits.
According to a report published in “Wire” by researcher Prithviraj Rupavath, associated with an organization called Land Conflict Watch, in February 2019, when the Supreme Court issued the eviction order, the number of rejected individual claims and community claims were 17.10 lakh and 45045 respectively. According to the order of the court, after review of these rejected claims, today their number is 16.33 lakh and 40422 respectively. He says that the claims were either not reviewed properly or settled in favor of the forest department and the process of informing the claimant and the gram sabha, giving specific reasons for the rejection, was not followed. It is clear that despite the order of the court, the entire process of review was flawed and the tribal community will have to bear the brunt of it.
As far as Chhattisgarh is concerned, since the enactment of the Forest Rights Act, 3.70 lakh hectares of forest land (on an average only 2 acres per family) has been distributed to only 4.54 lakh tribals, whereas more than this have been rejected without following any legal process. As of March 2020, more than 8.11 lakh claims of individual forest rights were pending here. Those who have got forest rights, have not got possession of the entire land and that too is being snatched away for the corporates. At present, the tribals of Chhattisgarh are agitated on a large scale in the matter of forest rights and reservation.
Similarly, in Madhya Pradesh till February 2019, 3.49 lakh individual claims were rejected. After review of these claims, again a total of 3.10 lakh claims have been rejected till June 2022 including 2.36 lakh reviewed claims.
The apathy of the governments towards the tribals continues. Till date the Chhattisgarh government has not submitted its affidavit in the Supreme Court. The Forest Rights Act was made to correct the *’historical injustice’* that has been going on for centuries against the tribals. If this law is rejected due to the negligence of the governments and the insensitivity of the courts, then it will be a declaration of continuation of these injustices.
*(Writer is the President of Chhattisgarh Kisan Sabha. Contact : 9424231650)*
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