*परंपरा या कुटेव?* *(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*

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कोई तो इन हिमाचलियों को समझाओ। बेकार की जिद पकड़कर बैठे हुए हैं। कहते हैं कि हमारी यही परंपरा है। आज की नहीं‚ पुरानी परंपरा है। पीढ़ियों से चली आती परंपरा। चुनाव हुआ और सरकार बदली। इस बार भी वही करेंगे। मोदी जी की भी नहीं मान रहे। कहते हैं कि हम अपनी परंपरा नहीं छोड़ सकते। आपके जैसे परंपरावादियों के कहने से भी नहीं। बताइए‚ परंपरा नहीं, किसान की जमीन हो गई –– कबहूं न छांड़ेें खेत। ये परंपरा नहीं, कुटेव है।

मोदी जी कोई अपने लिए तो कह नहीं रहे थे कि चुनाव-चुनाव पर सरकार बदलने की परंपरा ठीक नहीं है। अपनी पार्टी के लिए भी नहीं कह रहे थे। पब्लिक जिसकी चाहे सरकार बनाने के लिए वोट करे‚ उनका क्याॽ पब्लिक जिसके लिए वोट डालेगी, उसकी सरकार बन ही जाएगी क्याॽ और पब्लिक के बनाने से सरकार बन भी गयी और ऑपरेश्न कमल के झटके झेलते हुए चल भी गयी‚ तब भी क्याॽ छोटे महामहिम जी होंगे ना – मोदी जी को फिक्र करने की क्या जरूरत है। पर मोदी जी दुबले हो रहे हैं; देश की चिंता से। अगर हिमाचल में दुश्मन सरकार बन गई‚ तो वो दिल्ली में मोदी जी को काम नहीं करने देगी।

अब अठारह–अठारह घंटे काम कर के मोदी ने किसी तरह से डॉलर को 82 रूपये पर और तेल को 100 रूपये पर रोका हुआ है; अग्निवीरों को पूरे चार साल दिए हैं; सरकारी कर्मचारियों को नई ही सही, कम से कम पेंशन दे रहे हैं; विश्वनाथ से महाकाल तक कॉरीडोर बना रहे हैं और राम मंदिर से लेकर नई संसद बनवा रहे हैं, सो अलग; पर शिमला वाली सरकार अगर मोदी जी को काम ही नहीं करने देगी‚ तो फिर राम ही जाने देश का क्या होगाॽ मोदी जी का अपना क्या है‚ वह तो फकीर हैं‚ झोला उठाकर निकल जाएंगे!

देश के हित में मोदी जी को अब एक देश, एक चुनाव का कानून बना ही देना चाहिए। एक चुनाव‚ माने सिर्फ एक साथ चुनाव नहीं‚ सिर्फ एक बार चुनाव। बार–बार चुनाव का खर्चा भी बचेगा और अमृतकाल में राज–काज भी चलता रहेगा। मोरबी झूला पुल की मरम्मत करने वाले घड़ी वाले पटेल साहब की किताब पढ़ी नहीं क्याॽ और कहीं तब भी कमल नहीं खिला तो‚ छोटे–बड़े महामहिम हैं ना।

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