जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, अगले महीने के पहले हफ्ते में दो चरणों में होने जा रहे विधानसभाई चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नामों की घोषणा के साथ, नरेंद्र मोदी की भाजपा ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि गुजरात में सरकार पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए, वह शब्दश: कुछ भी कर सकती है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस ‘‘कुछ भी’’ में खुलकर बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अपनी तुरुप का उनका इस्तेमाल तो आता ही है। मोदी-शाह की तय की गई भाजपा उम्मीदवारों की सूची में से दो नाम खासतौर पर, इस सांप्रदायिक तुरुप के इस्तेमाल की उसकी बदहवासी को दिखाते हैं। इनमें पहला नाम, नरोडा पाटिया से घोषित भाजपा की उम्मीदवार, डा0 पायल कुकुरानी का है, जिन्हें निवर्तमान भाजपा विधायक, बलराम थवानी का टिकट काटकर, उनकी जगह उम्मीदवार बनाया गया है। और दूसरा नाम, चंद्रसिंह राउलजी का है, जिन पर मोदी-शाह की विशेष कृपा हुई है और उन्हें गोधरा की अपनी सीट से दोबारा चुनाव में उतारा गया है।
याद दिला दें कि इस बार जीत के मोदी-शाह फार्मूले के हिस्से के तौर पर, भाजपा ने अपनेे पूरे चालीस विधायकों का टिकट काट दिया है, यानी अपनी कुल विधायकों में से करीब 40 फीसद का। इनमें करीब आधा दर्जन मंत्री भी शामिल हैं। इसके बाद, हिमाचल प्रदेश की ही तरह, स्वयं मोदी के गुजरात में भी कई पूर्व विधायकों समेत अनेक भाजपा नेता निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में कूदने का एलान कर चुके हैं या उसकी तैयारियां कर रहे हैं, जो खुद भले नहीं जीतें, पर अपनी सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की मुश्किलें तो बढ़ा ही सकते हैं। यह गुजरात तक में संघ कुनबे पर मोटा भाई-छोटा भाई की जोड़ी के पूर्ण नियंत्रण की सीमाओं को भी दिखाता है, लेकिन उस सब की चर्चा हम जरा बाद में करेंगे। पहले तो हम मोदी-शाह जोड़ी की सांप्रदायिक चुनावी कार्यनीति के इन दो खास मोहरों की पहचान कर लें।
नरोडा पाटिया से उम्मीदवार बनायी गयी डा0 पायल कुकरानी के ही उम्मीदवार बनाए जाने और पिछली बार जीते बलराम थवानी का टिकट काटकर उम्मीदवार बनाए जाने का, पहला और सबसे प्रमुख कारण है — उसका स्थानीय भाजपा नेता मनोज कुकरानी की बेटी होना। और मनोज कुकरानी की बेटी होने से भाजपा के टिकट वितरण के तराजू का पलड़ा निर्णायक रूप से पायल कुकरानी के पक्ष में झुक जाने एक ही कारण है — मनोज कुकरानी का उन लोगों में से एक होना, जिन्हें 2002 के नरोडा पाटिया के भयावह नरसंहार में शामिल होने के लिए, आजीवन कारवास की सजा दी गयी है। याद रहे कि गोधरा ट्रेन आगजनी की घटना के बाद, मोदी के मुख्यमंत्रित्व में गुजरात में शासन की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद से कराए गए मुस्लिमविरोधी नरसंहार की सबसे भयावह घटनाओं में से एक नरोडा पाटिया में हुई थी, जहां पूरे 97 मुसलमानों की बर्बरता से हत्या की गयी थी और बड़े पैमाने पर, मस्जिदों समेत संपत्तियों व इमारतों को तोड़ा या जलाया गया था।
हां! नरोडा पाटिया हत्याकांड, इस मुस्लिमविरोधी नरसंहार के उन गिने-चुने प्रकरणों में से भी एक है, जिनमें शासन-प्रशासन की दोषियों को बचाने की सारी कोशिशों के बावजूद, कम से कम कुछ दोषियों को सजा दिलायी जा सकी थी। मनोज कुकरानी समेत, 16 दोषियों की सजा की 2018 में गुजरात हाई कोर्ट द्वारा पुष्टि की गयी थी। हैरानी की बात नहीं है कि आजीवन कारावास की सजा की हाई कोर्ट से पुष्टि होने के बावजूद, मनोज कुकरानी जमानत पर छूटे हुए हैं। जाहिर है कि डा0 पायल, मनोज कुकरानी की ऐवजी उम्मीदवार र्हैं। जैसे इसी तथ्य को और खुलकर रेखांकित करने के लिए, मनोज कुकरानी अपनी बेटी के चुनाव प्रचार में शुरू से ही आगे-आगे देखे गए हैं। यह इसके बावजूद है कि उन्हें जमानत, स्वास्थ्य संबंधी कारणों के नाम पर दी गयी है और भाजपा सरकार की नजर में वह गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं!
बेशक, डा0 पायल की मां, रेशमा कुकरानी भी, अपने पति की तरह ही लंबे समय से भाजपा की नेता हैं और स्थानीय पार्षद भी हैं। लेकिन, इससे भी बढक़र एक और कारक है, जिसने डा0 पायल को नरोडा पाटिया क्षेत्र में चुनाव के लिए मोदी-शाह का पसंदीदा चेहरा बनाया लगता है। इस कारक का संबंध इस तथ्य से है कि अतीत में नरोडा पाटिया की सीट से तीन बार भाजपा की ओर से विधायक चुनी गयीं, माया कोडनानी भी, पायल की तरह ही डाक्टर हैं। तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री रहीं, डा0 कोडनानी को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित एसआइटी की जांच के निष्कर्षों के आधार पर 2009 में, नरोडा पाटिया और नरोडा ग्राम नरसंहार के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। निचली अदालत ने उन्हें नरोडा पाटिया नरसंहार के लिए दोषी ही नहीं ठहराया था, बल्कि नरसंहार का मास्टर माइंड करार दिया था और उन्हें सामान्य आजीवन करासावस से भी कठोर, 28 साल की कैद की खास सजा सुनाई थी। बहरहाल, 2018 में हाई कोर्ट ने उन्हें संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया। इससे पहले, भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष, अमित शाह उनके बचाव के गवाह के तौर पर अदालत में पेश हुए थे। इस तरह कोशिश यह है कि डा0 पायल में सांप्रदायिक भाजपा-समर्थक, 2002 के नरसंहार के सजायाफ्ता अपराधी, पंकज कुकरानी की बेटी ही नहीं, जन धारणा में नरोडा पाटिया तथा नरोडा ग्राम के नरसंहार की मास्टर माइंड मानी जाने वाली डा0 कोडनानी की उपयुक्त उत्तराधिकारी, बल्कि परछाईं भी देखें। अचरज नहीं कि थवानी का टिकट काटकर, डा0 पायल के सिर पर मोदी-शाह ने भाजपा की उम्मीदवारी का ताज रखा है।
भाजपा उम्मीदवारों की घोषित सूची में दूसरा इतना ही खास नाम, चंद्रसिंह राउलजी का है, जिन्हें संवेदनशील गोधरा से दोबारा खड़ा किया गया है। चंद्रसिंह राउलजी का नाम अब से कुछ महीने पहले मीडिया में सुर्खियों में आया था, जब 75वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर, गुजरात में समारोही माफी में कुख्यात बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार तथा सामूहिक हत्याकांड में आजीवन कारावास की सजा पाए सभी 11 अपराधियों को छोड़ दिया गया था। 2002 के मुस्लिमविरोधी नरसंहार के ही हिस्से के तौर पर गोधरा के ग्रामीण इलाके में हुए उक्त कांड में, पांच महीने की गर्भवती बिलकिस बानो समेत कई मुस्लिम महिलाओं को, जो हत्यारी भीड़ से जान बचाने के लिए भागकर खेतों में जाकर छुप गयी थीं, सामूहिक बलात्कार का निशाना बनाया गया था और करीब दो दर्जन लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गयी थी, जिनमें बिलकिस बानो की नौ महीने की बेटी भी थी। हत्यारों ने नौ महीने की बच्ची को पत्थर पर पटकर मार डाला था। खुद बिलकिस बानो को भी हत्यारे मरा हुआ जानकर ही पड़ा छोड़ गए थे।
स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने पर, इन दरिंदों को आजाद किए जाने के बाद, मिठाइयां बांटकर तथा मालाएं पहना कर तथा आरती उतारकर उनका स्वागत किया गया, जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर वाइरल होने के बाद देश भर में लोगों की काफी नाराजगी सामने आयी। बहरहाल, इसी हंगामे के बीच पता चला कि इन दरिंदों की सजा माफ करने के लिए, गुजरात की भाजपा सरकार ने जिस ‘‘पब्लिक कमेटी’’ की सिफारिश को स्वीकार करने का स्वांग किया था, उसमें गोधरा के भाजपायी विधायक, चंद्रसिंह राउलजी की मुख्य भूमिका थी। बाद में राउलजी ने मीडिया से साक्षात्कारों में यह एलान भी किया कि वास्तव में ये अपराधी उनके हिसाब से तो निर्दोष थे, जिन्हें नाहक फंसाया गया था। राउलजी के हिसाब से उनके निर्दोष होने के लिए इतना ही सबूत काफी था कि वे तो ‘‘संस्कारी ब्राह्मïण’’ हैं, जो ऐसा कुछ कर ही कैसे सकते थे? इन अपराधियों को सजा माफी दिए जाने के खिलाफ जब कुछ महिला कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गुजरात की भाजपा सरकार को हलफिया बयान देकर इस फैसले के मामले में अपना पक्ष रखना पड़ा, राज्य सरकार ने इस फैसले का बचाव तो किया ही, उसके बयान से यह भी साफ हो गया कि इस फैसले के लिए केंद्र सरकार यानी अमित शाह के आधीन केंद्रीय गृहमंत्रालय ने मंजूरी दी थी। इस तरह, गोधरा के भाजपायी विधायक राउलजी से लेकर, केंद्र में बैठी मोदी सरकार तक, पूरा भाजपायी शासन तंत्र, इस सजा माफी के फैसले में शामिल था, जो विधानसभाई चुनाव की राजनीतिक हलचलें शुरू होने के ऐन पहले लिया गया था।
चुनाव की संध्या में बिलकिस बानो के अपराधियों की सजा माफी देकर छोड़े जाने का एक ही मकसद हो सकता था, चुनाव के मौके पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के औजार के तौर पर, 2002 के मुस्लिमविरोधी नरसंहार के घावों को कुरेदना। 2002 के नरसंहार की किसी ट्राफी या तमगे की तरह याद ताजा कराने का, एक और व्यापक उपयोग भी है। इसके जरिए, 2002 के ‘‘हीरो’’ नरेंद्र मोदी की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक छवि को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के चमकाया जा सकता है। मोदी की यह छवि, उस भाजपा राज को भी ऐसी ही छवि देती है, जिसके लिए प्रचार की कमान खुद मोदी ने संभाल ली है। यह 2002 के नरसंहार के प्रायोजक शासन की ही निरंतरता का वादा है। भाजपा के उम्मीदवारों में डा0 पायल और राउलजी जैसे और कम या ज्यादा ऐसे ही दूसरे दर्जनों चेहरों की भी मौजूदगी, इसी छवि को चमकाने के लिए या कहें कि ठीक यही चुनाव प्रचार करने के लिए है।
गुजरात में भाजपा सब कुछ के बावजूद, इसी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक छवि का सहारा लेगी, यह तो तभी साफ हो गया था, जब बिलकिस बानो के अपराधियों की सजा माफी के बाद, राज्य की भाजपा सरकार ने अचानक राज्य में ‘‘समान नागरिक संहिता’’ लागू करने का फैसला कर लिया और इसके लिए हाई कोर्ट के एक पूर्व-न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमेटी के गठन का एलान कर दिया। उससे पहले ही, चुनाव आयोग से हिमाचल और गुजरात के चुनाव की तारीखों की घोषणा को अलग कर के तथा अंतत: दोनों में मतदान के बीच करीब तीन हफ्ते का अंतराल रखकर, नरेंद्र मोदी को पहले आचार संहिता लागू होने से पहले सरकारी वादों-घोषणाओं के लिए अतिरिक्त समय दिलाने और बाद में सब भूलकर गुजरात में ही चुनाव प्रचार में जुटने की फुर्सत देने का इंतजाम कराया जा चुका था। इसी पर अमल करते हुए अब नरेंद्र मोदी के चुनाव से पहले लगातार सात-आठ दिन गुजरात में ही रहने, धुंआधार 25 चुनावी सभाएं करने और राज्य की करीब हरेक विधानसभाई सीट तक पहुंचने का कार्यक्रम भी बनाया जा चुका है। फिर भी, भाजपा को बार-बार 2002 की याद दिलाकर, अपना सांप्रदायिक चेहरा और चमकाने की जरूरत पड़ रही है। शायद, अहमद पटेल की अनुपस्थिति इस बार के चुनाव में मोदी जी को बहुत खल रही है। कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेता की नामौजदगी में मोदी जी, अपनी मुख्य विरोधी पार्टी, कांग्रेस की चुनौती को, गुजरात में मुस्लिम राज कायम करने की पाकिस्तान की साजिश बताकर, अपने हिंदू राज को खतरे में कैसे दिखाएंगे? अचरज नहीं कि उन्हें अब 2002 की (अप)कीर्ति का ही सहारा नजर आ रहा है। यह सहारा काम करेगा या नहीं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिर भी, इस चुनाव में भाजपा के बागियों की अभूतपूर्व संख्या में भी कुछ तो इशारा है ही और खासतौर पर कांग्रेस के पक्के जनसमर्थन वाले नेताओं को खरीद-खरीद कर अपनी टीम में शामिल करने की मोदी-शाह की मुहिम में भी।
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