पिछले सप्ताह बनारस में गंगा किनारे, तमिलनाडु से चुन–चुनकर बुलाये गए 2500 अपनों के बीच बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि “काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है, जबकि तमिलनाडु और तमिल संस्कृति भारत की प्राचीनता और गौरव का केंद्र है।” उन्होंने बताया कि “संस्कृत और तमिल दोनों सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक हैं, जो अस्तित्व में हैं। तमिल की विरासत को संरक्षित करने और इसे
समृद्ध करना 130 करोड़ भारतीयों की जिम्मेदारी है। अगर हम तमिल की उपेक्षा करते हैं तो हम राष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान करते हैं और अगर हम तमिल को प्रतिबंधों में सीमित रखते हैं, तो हम इसे बहुत नुकसान पहुंचाएंगे। हमें भाषाई मतभेदों को दूर करने और भावनात्मक एकता स्थापित करने के लिए याद रखना होगा।” वे वाराणसी में एक महीने तक चलने वाले ‘काशी तमिल संगमम” का उद्घाटन करते हुए यह सब अच्छी बातें बोल रहे थे। इतना ही नहीं, इसी कार्यक्रम के दौरान, उन्होंने 13 भाषाओं में अनुवाद के साथ एक पुस्तक ‘तिरुक्कुरल’ का भी विमोचन किया।
गंगा किनारे हिलोर लेते इस तमिल प्रेम की टाइमिंग पर ध्यान देने से बात और साफ़ होती है। यह तमिल प्रेम ठीक उस वक़्त उमड़ रहा था, जब पूरे देश में एक भाषा – हिंदी – थोपने का प्रबंध और प्रावधान करने वाली अमित शाह की अगुआई वाली संसदीय समिति की सिफारिश को लेकर बहुभाषी भारत के अलग–अलग प्रांतों में क्षोभ और आक्रोश घुमड़ रहा था। इसी विक्षोभ को भटकाने के लिए मोदी गंगा किनारे भी झांसा देने से बाज नहीं आ रहे थे। यह अलग बात है कि इस झांसेबाज़ी में भी वे अपना असली संघी अजेंडा ; एक भाषा, एक संस्कृति वगैरा–वगैरा नहीं भूल रहे थे। काशी को भारत की सभी संस्कृतियों की राजधानी बता रहे थे और 2001 की जनगणना के मुताबिक़ भारत में 6 करोड़ 90 लाख, विश्व भर में 8 करोड़ 77 लाख, लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली दुनिया की प्राचीनतम “जीवित भाषा” तमिल को, मात्र 24821 (आबादी का महज 0.002%) द्वारा बोली जाने वाली, इन्ही के शम्बूक-एकलव्य-मनु प्रपंचों के चलते प्रचलन से बाहर हुयी संस्कृत के समकक्ष रख रहे थे। जाहिर है कि यह सब अनायास नहीं था । जैसा कि “हिन्दी ; ई की जगह ऊ की मात्रा” शीर्षक से इसी स्तम्भ में लिखा जा चुका है – इसकी एक क्रोनोलॉजी है, जो हिंदी के बहाने शुरू होती है और अन्ततः बाकी सारी भाषाओं के निषेध के साथ–साथ खुद हिंदी के रूप और प्रकार को विलोपित करने तक पहुँचती है।
भारतीय भाषाओं के प्रति इस कुनबे का द्वेष दबा–छुपा नहीं है। इन पंक्तियों के लेखक ने इमरजेंसी की जेल में खुद इनके श्रीमुखों से इन भाषाओं के प्रति उनका रुख सुना है। उस जेल में बंद इनके एक बड़े ही प्रमुख प्रचारक अपने उपदेशों-प्रवचनों में भारतीय भाषाओं का चुन–चुन कर संधि-विच्छेद करते थे और उनकी खुद के द्वारा खोजी व्युत्पत्ति बताया करते थे। उनकी शोध के कुछ नमूने देखें ; बंगाली = बन गाली !! मलयालम = मल का विकल्प मल !! तेलुगू = तेल + (आप समझ गए होंगे ) !! कन्नड़ = किन्नर !! तमिल = तेल + मल पंजाबी = पंजा हावी !! उड़िया = उड़ जा !! मैथिली = मैली थाली !! और भी बहुत कुछ !! हर भाषा के बारे में उनकी इसी तरह की व्याख्याएं थीं। अलबत्ता मराठी और अंग्रेजी के बारे में कुछ भी न बोलने की सावधानी वे जरूर बरतते थे। इसी तर्ज पर किसी दिन उनका “बौध्दिक” पहनावे को लेकर होता था, तो कभी खानपान के तरीके और व्यंजन निशाने पर हुआ करते थे।
अपनी भाषा, अपने खानपान, अपने परिधान , अपने साहित्य, अपनी जीवन शैली कुल मिलाकर अपनी संस्कृति पर फख्र करना एक बात है – मगर इसके लिए बाकी मनुष्यता को नकारना, उनकी भाषा, उनके खानपान, उनके परिधान , उनके साहित्य, उनकी जीवन शैली कुल मिलाकर उनकी संस्कृति को निकृष्टतम बताना, उसका अपमान करना, मखौल बनाना एक खास किस्म की हीन-ग्रंथि है। इस तरह की मनोरोगिता एक विशिष्ट किस्म का विकृत मानस तैयार करती है। मनुष्य को असामाजिक प्राणी बनाती है। ऐसा संकीर्ण व्यक्तित्व ढालती है जो घटते–घटते न दुनिया का बचता है, न देश का, न समाज का, ना ही स्वयं के परिवार का। वह एकदम खुद पर आकर टिक जाता है।
यह मनोरोगिता हिंदी को भी नहीं बख्शती। यह तिरस्कारवादी नजरिया, संकीर्ण और अंधभक्त सोच यहां लाकर खड़ा कर देता है कि पूर्व प्रभुओं की भाषा अंग्रेजी की घुसपैठ तो माथे का चन्दन बन जाती है, मगर तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, खासी-गारो-गोंडी-कोरकू आदि–इत्यादि भाषायें अस्पृश्य और असुर बना दी जाती है। इन्ही का एक रूप विस्तारवादी है, जो ब्रज, भोजपुरी, अवधी, बघेली, मैथिली, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, कन्नौजी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, निमाड़ी के विकासक्रम और अस्तित्व को ही नही मानता। उन्हें हिंदी की उपशाखा मानकर फूले–फूले फिरता है।
निस्संदेह हिंदी एक आधुनिक भाषा है, जो सैकड़ों वर्षों में, अनेक सहयोगी भाषाओं/बोलियों के जीवंत मिलन से बनी है। जब तक इसका यह अजस्र स्रोत बरकरार है, जब तक इसकी बांहें, जो भी श्रेष्ठ और उपयोगी है, उसका आलिंगन करने के लिए खुली हैं, जब तक इसकी सम्मिश्रण उत्सुकता बनी है, तब तक इसका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता। हिंदी का संस्कृतिकरण और हिन्दूकरण खुद हिंदी की जड़ों में मठ्ठा डालना है। विडंबना की बात यह है कि यह काम वे लोग कर रहे हैं, जो एक मिनट धाराप्रवाह हिंदी नहीं बोल सकते। एक वाक्य शुध्द हिंदी में नहीं लिख सकते। हिंदी की संज्ञा हिंदी में कहां से आई, यह भी नहीं जानते। वे न हिंदी ठीक तरह से जानते है, न हिंदी के बारे में कुछ जानते हैं ।
उन्हें नही पता कि हिंदी की पहली कहानी “रानी केतकी” लिखने वाले मुंशी इल्ला खां थे। पहली कविता “संदेश रासक” लिखने वाले कवि अब्दुर्रहमान – पहले लोकप्रिय कवि अमीर खुसरो, पहला खण्डकाव्य लिखने वाले मलिक मोहम्मद जायसी थे । (इन्ही जायसी की कृति थी ; पद्मावत, जिस पर बनी फिल्म पर इन “ऊ” की मात्रा वाले उऊओं ने रार पेल दी थी।) ये सब भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पहले की बात है ।
हिंदी में पहला शोधग्रंथ -पीएचडी- ईसाई पादरी फादर कामिल बुल्के का था/की थी, वे ही, जिन्होंने हिंदी शब्दकोष तैयार किया था। प्रथम महिला कहानी लेखिका बांग्ला भाषी राजेन्द्र बाला घोष थी जिन्होंने “दुलाई वाली” कहानी लिखी और कई ग्रंथों के हिंदी अनुवाद के माध्यम बने राजा राममोहन राय बंगाली भी थे और ब्रह्मोसमाजी भी ।
हिंदी में ई की जगह ऊ की मात्रा लगाने को आतुर इन उऊओं से हिंदी को भी बचाना होगा। उसका समावेशी रूप कायम रखकर, उसे जैसी वह रही है वैसी, हिंदुस्तानी बनाकर विकसित होते रहने देना होगा। यह सब होता रहा, तो सारी भाषाओं की सलामती के साथ एक दिन वह अपने आप संपर्क भाषा बन जाएगी ।
तमिल हो या हिंदी, जो बात काशी में भाषण दे रहे मोदी नहीं जानते, वह यह है कि भाषा जीवित मनुष्यता की निरंतर प्रवाहमान, अनवरत विकासमान मेधा और बुध्दिमत्ता है, जिसे हर कण गति और कलकलता प्रदान करता है।
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