*गुजरात चुनाव और ‘2002 का सबक’!* *(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*

Estimated read time 1 min read

 

आखिरकार, अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से 2002 के गुजरात के मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के कर्ता या प्रायोजक के नाते, मोदी की भाजपा के लिए गुजरात के लोगों से वोट की मांग कर ही डाली। गुजरात के चुनाव के लिए प्रचार के अखिरी चरण में, मोदी के निर्विवाद नंबर-दो और देश के गृहमंत्री, अमित शाह ने खेड़ा जिले के महुधा शहर में एक चुनावी रैली में इसके श्रेय का दावा किया कि 2002 में मोदी जी के राज में ‘‘सबक सिखाया गया था’’, जिसके बाद से ‘उन’ तत्वों ने ‘वह रास्ता छोड़ दिया। वे लोग 2002 से 2022 तक हिंसा से दूर रहे। इस तरह मोदी के राज ने ‘गुजरात में स्थायी शांति कायम की है!’ कहने की जरूरत नहीं है कि वह इस ‘गर्वपूर्ण’ रिकार्ड के बल पर, दिसंबर के पहले सप्ताह में होने जा रहे मतदान में मोदी की भाजपा को एक बार फिर जिताने की गुजरात के लोगों से अपील कर रहे थे, ताकि 2002 के ‘‘सबक’’ से कायम हुई शांति को पांच साल और कायम रखा जा सके। याद रहे कि 2002 के नरसंहार के फौरन बाद एक जाने-माने गुजराती विद्वान और लेखक ने ठीक इन्हीं शब्दों में मुस्लिम विरोधी नरसंहार को सही ठहराया था कि, ‘उन्हें सबक तो सिखाना ही था।’ बेशक, यहां यह याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि 2022 के चुनाव में अमित शाह, जिस मोदी निजाम के रिकार्ड के आधार पर वोट मांग रहे हैं, जिसकी तुलना उस समय देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कुख्यात बादशाह नीरो से की थी, जिसके संबंध में मशहूर है कि ‘जब रोम जल रहा था, नीरो चैन से वायलिन बजा रहा था।’

बेशक, राजनीतिक रूप से बहुत ही भोले लोगों को छोडक़र, शायद ही किसी को इसमें अचरज हुआ होगा कि आखिरकार, मोदी की भाजपा चुनाव में 2002 के नरसंहार में अपनी भूमिका को खुलेआम भुनाने पर उतर आयी है। एक प्रकार से उसने 2002 के अपने सांप्रदायिक शौर्य को चुनाव में भुनाने की तैयारियां तो तभी शुरू कर दी थीं, जब उस नरसंहार के भयानकतम प्रसंगों में से एक के रूप में कुख्यात, बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार तथा एक दर्जन से ज्यादा हत्याओं के प्रकरण के 11 सजायाफ्ता अपराधियों को, आजीवन कारावास की उनकी सजा को माफ करते हुए, आजादी के अमृत महोत्सव के हिस्से के तौर पर, इसी पंद्रह अगस्त को जेल से छोड़ दिया गया था। यह कोई औचक समारोह के मौके पर लिया गया निर्णय नहीं था, बल्कि इन अपराधियों के प्रति, गुजरात में मोदी जी द्वारा स्थापित निजाम ‘‘सबक सिखाने’’ के अपने उक्त उद्यम के ‘बलिदानी योद्घाओं’ के नाते जिनके प्रति चिर कृतज्ञता का अनुभव करता था, बार-बार तथा लंबे अर्से तक पैरोल पर छोड़े जाने समेत दी जाती रहीं सारी रियायतों की शृंखला का ही अगला चरण था, जो चंद महीने में ही होने जा रहे विधानसभाई चुनावों में उसके काम भी आने वाला था।

अचरज नहीं कि उनकी सजा माफी के लिए केस तैयार करने के लिए गठित की गयी कमेटी में, स्थानीय उच्चाधिकारियों के अलावा, भाजपा के स्थानीय विधायक समेत, ‘‘सबक सिखाने’’ के उक्त उद्यम के पैरोकारों का ही बोलबाला सुनिश्चित किया गया था। संबंधित विधायक, रावल जी ने, जिसका टिकट 40 फीसद सिटिंग विधायकों के टिकट काटे जाने की आंधी में भी इस बार सुरक्षित रहा है, उक्त अपराधियों की सजा माफी का यह कहकर जोर-शोर से बचाव किया था कि वे तो निर्दोष थे जो झूठे ही फंसाए गए थे। वे तो ‘‘संस्कारी ब्राह्मïण’’ हैं, वे ऐसा अपराध कर ही कैसे सकते थे? बेशक, ज्यादा शोर मचने पर मोदी की ‘‘उत्तराधिकारी’’ तथा सीधे उसके द्वारा ही चुनी गयी, भूपेंद्र पटेल सरकार ने उक्त ‘व्यापकतर कमेटी’ के निर्णय की आड़ में शुरू में जिम्मेदारी से बचने की कोशिश भी की थी। लेकिन, बाद में सुप्रीम कोर्ट में उक्त सजा माफी को चुनौती दिए जाने के बाद, सुप्रीम कोर्ट के सामने दिए अपने हलफनामे में राज्य सरकार को कबूल करना पड़ा कि उक्त जघन्य अपराधियों की सजा, खुद अमित शाह के आधीन केंद्रीय गृहमंत्रालय के अनुमोदन से माफ की गयी थी। साफ है कि 2002 के ‘‘सबक’’ को इशारों में भुनाने की तैयारी तो तभी से शुरू हो गयी थी।

इसी के हिस्से के तौर पर आगे चलकर, नरोडा पाट्या तथा नरोडा गांव नरसंहार प्रकरणों की मुख्य मास्टर माइंड मानी गयीं तथा इसी कारगुजारी के लिए बाद में मोदी निजाम में मंत्रिपद से भी नवाजी गयीं, डा. माया कोडनानी की सीट पर, जिन्हें सीबीआइ की जांच तथा आरोपपत्र के आधार पर पहले 28 साल की सजा हुई थी, जिसे बाद में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह की गवाही के बाद उच्चतर न्यायालय द्वारा बरी कर दिया गया, उक्त नरसंहार के ही एक और आजीवन कारावास की सजा पाए अपराधी की डॉक्टर बेटी को, इस चुनाव में भाजपा का टिकट भी दिया गया। और अब तो खैर, खुद अमित शाह ने अपने मुंह से 2002 में ‘‘सबक सिखाने’’ के श्रेय का दावा ही पेश कर दिया है। बेशक, शाह के खुलकर ऐसा दावा पेश करने में, इस बार गुजरात में विधानसभा चुनाव में नजर आते रुझानों के कुछ न कुछ संकेत जरूर छुपे हुए हैं। लेकिन, इन संकेतों की चर्चा करने से पहले, यह याद दिला देना जरूरी है कि मोदी-शाह की भाजपा ने जब तक खुलकर, 2002 के नरसंहार की अपनी वीरता के लिए खुलकर, वोट मांगने का सहारा नहीं लिया था, तब भी वह चुनाव में सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी धु्रवीकरण के ही आसरे थी, जिसके औजारों में नातिपरोक्ष तरीकों से 2002 की याद दिलाना भी शामिल था।

वास्तव में मोदी-शाह की भाजपा शुरू से ही और हर जगह, इसी तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ही आसरे रही है, पर गुजरात में तो खासतौर पर इसी के आसरे रही है। 2002 का विधानसभाई चुनाव, जिसे मोदी सरकार ने नरसंहार के बाद जल्द से जल्द कराने की कोशिश की थी और तत्कालीन चुनाव आयोग ने ही चुनाव थोड़ा पीछे खिसकाया था, तो जाहिर है कि 2002 के कारनामे के बल पर मोदी ने लड़ा और जीता ही था, 2007 का अगला चुनाव भी मोदी ने ‘‘वो पांच, उनके पच्चीस’’ का मुकाबला करने के नारे पर लड़ा और जीता था! यहां तक कि 2017 का विधानसभाई चुनाव भी, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से अपने चेहरे पर लडऩे की कोशिश से शुरूआत जरूर की थी, जिसमें ‘‘मुझे नीच कहा’’ का खूब शोर मचाया जा रहा था, लेकिन आगे चलकर मोदी ने कांग्रेस नेता अहमद पटेल के नाम के सहारे, मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की पाकिस्तान की साजिश झूठे प्रचार के रास्ते, सीधे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को ही मुख्य सहारा बनाया था। इस बार भी, 2002 की ‘कीर्ति’ की ओर इशारों के अलावा, चुनाव सिर पर आता देखकर भाजपा, कॉमन सिविल कोड का अपना पुराना सांप्रदायिक ध्रुवीकरणकारी दांव निकाल लायी। इसके लिए भाजपा की राज्य सरकार ने एक दिन अचानक, कॉमन सिविल कोड के लिए हाई कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में, एक कमेटी के गठन के निर्णय का एलान कर दिया और अब हिमाचल की ही तरह गुजरात में भी भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इसे पहले नंबर पर रखा गया है। वैसे इसके अलावा भाजपा के घोषणापत्र में, जाहिर है कि सबसे बढक़र मुसलमानों को तंग करने के लिए ही, एंटीरेडीकलाइजेशन सैल के गठन का भी वादा किया गया है।

फिर भी शायद, इसके फौरन बहुत काम करते दिखाई न देने के चलते, गुजरात में भाजपा के लिए चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे, असम के भाजपायी मुख्यमंत्री, हेमंत बिश्व सरमा ने दिल्ली में हुई लिव-इन पार्टनर की जघन्य हत्या की वारदात को, हत्या के आरोपी के धर्म के आधार पर, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का हथियार बनाते हुए, 2024 में नरेंद्र मोदी को तीसरी बार जिताने की दलील पेश कर दी, वर्ना शहर-शहर में ‘शहजादों को पैदा होने से नहीं रोका जा सकेगा।’ इसमें भी, एक खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक अपील के साथ ही, 2002 के ‘‘सबक’’ की ओर इशारा जरूर था। बहरहाल, अब जबकि अमित शाह ने खुलकर, उक्त ‘‘सबक सिखाने’’ के श्रेय का दावा कर ही दिया है, बस खुद नरेंद्र मोदी के अपने मुंह से ऐसा दावा करने की कमी रह जाती है। वैसे प्रधानमंत्री मोदी भी, प्रचार के आखिरी चरण के आते-आते, अपने राजनीतिक विरोधियों को अपनी तुष्टीकरण की राजनीति के लिए आतंकवादियों की हिमायत करने वाले बताने के जरिए, खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों और आतंकवाद का पर्याय ठहराने तक तो जा भी चुके हैं, यहां से ‘हां मैंने सबक सिखाया’ कहना, एकाध ही कदम दूर रह जाता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी खुद अपने मुंह से 2002 के ईनाम में वोट मांंगते हैं या बस इतना भर करने का जिम्मा अपने नंबर दो पर ही छोड़ देते हैं।

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी-शाह की भाजपा को अगर सीधे अपने बहुसंख्यकवादी समर्थकों को 2002 की याद दिलाना जरूरी लग रहा है, तो यह कम से कम इतना तो दिखाता ही है कि इस बार के विधानसभाई चुनाव में खुद भाजपा को आसान जीत की उम्मीद नहीं है। यह उसके नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लडऩे के बावजूद है। वैसे प्रधानमंत्री के चेहरे पर तो भाजपा अब दिल्ली नगर निगम का चुनाव भी लड़ रही है, फिर भी गुजरात में अपने पहले प्रधानमंत्री के चेहरे का आकर्षण कहीं ज्यादा काम करेगा। बेशक, इसके पीछे 2017 के गुजरात के चुनाव के अनुभव से निकली अतिरिक्त सावधानी भी होगी, जब कांग्रेस ने भाजपा के पसीने छुड़वा दिए थे और उसे 100 के आंकड़े से नीचे ही रोक दिया था। बेशक, उसके बाद से टार्गेटेड दलबदल-नेता खरीद आदि के जरिए, भाजपा ने राज्य में कांग्रेस को सांगठनिक तौर पर काफी कमजोर कर दिया है और दूसरी ओर, आम आदमी पार्टी के रूप में एक नये दावेदार के उभरने से, भाजपाविरोधी वोट का पिछले अनेक चुनावों की तुलना मेंं ज्यादा बंटना तय है। इसके बावजूद, मोदी-शाह की जोड़ी कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती है, क्योंकि उन्हें इसका बखूबी एहसास है कि कथित गुजरात मॉडल, मेहनतकशों के विशाल हिस्सों की तकलीफें दिन पर दिन बढ़ाने वाला मॉडल साबित हो रहा है। इसके चलते, हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवादी ध्रु,व पर शहरी-संपन्न-सवर्ण गोलबंदी का कोर काफी हद तक बचा रहने के बावजूद, उसके प्रभाव का दायरा घटता जा रहा है और दूसरी ओर मौजूदा निजाम से असंतुष्ट वंचितों का हिस्सा, बहुत एकजुट भले ही नहीं हो, बढ़ता जा रहा है। इसी बदलतेे संतुलन का डर है, जो अपने शहरी-संपन्न-सवर्ण समर्थन आधार को फिर से जोश दिलाने के लिए, मोदी-शाह की जोड़ी 2002 की याद दिला रहा है। अब यह तो 8 दिसंबर को ही पता चलेगा कि भाजपा, इस काठ की हांड़ी में पकाकर एक बार फिर गुजरात में सत्ता का स्वाद ले पाएगी या इस बार काठ की ये हांड़ी ही जल जाएगी।

 

You May Also Like

More From Author

+ There are no comments

Add yours