दोबारा जन्म मिले तो लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूंगी:खुद ही कहा था- लता की जिंदगी में जो तकलीफें हैं वो सिर्फ मुझे पता हैं
लता जी ने जवाब दिया – अगर वाकई मुझे दोबारा जन्म मिला तो मैं लता मंगेशकर कभी नहीं बनना चाहूंगी, क्योंकि लता मंगेशकर की जो तकलीफें हैं, वो मैं ही जानती हूं।
आज स्वर कोकिला लता मंगेशकर के निधन को एक साल पूरा हो गया। सालों पहले दिए अपने इंटरव्यू में उनके पूरे जीवन का संघर्ष इस एक जवाब में था। 50 हजार से ज्यादा गाने गाए, संगीत की दुनिया की सर्वोच्च शख्सियत बनीं, कोई ऐसा सम्मान नहीं था जो उन्हें ना मिला हो, लेकिन फिर भी वो दोबारा लता मंगेशकर नहीं बनना चाहती थीं।
बचपन से लेकर आखिरी सांस तक उन्होंने तकलीफें और संघर्ष देखा। कम उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया तो घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। चंद पैसे बचाने के लिए वो मीलों तक पैदल चल कर रिकॉर्डिंग स्टूडियो जाती थीं, ताकि जो पैसे बचें उससे सब्जी-तरकारी का इंतजाम हो जाए। ऐसे अनेकों किस्से हैं, जो उनकी जिंदगी में मुश्किलों को दिखाते हैं, साथ ही ये भी दिखाते हैं कि हर बार किस जीवटता के साथ उन्होंने उन परेशानियों को हराया।
आज लता जी की पहली पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी जिंदगी के कुछ ऐसे ही किस्से….
मंगेशकर सरनेम पिता ने पुरखों के गांव के नाम पर रखा
लता दीदी का पहले नाम हेमा था। बाद में उनके पिता ने अपने नाटक भाव बंधन की लीड फीमेल कैरेक्टर लतिका से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया।
पहले लता दीदी के पिता का नाम दीनानाथ अभिषेकी था, लेकिन वो चाहते थे कि उनकी आगे की पीढ़ी का नाम बिल्कुल अलग हो। उनके पुरखों के गांव का नाम मंगेशी था और कुलदेवता का नाम मंगेश। इस तरह उन्होंने अपना सरनेम मंगेशकर कर लिया।
5 साल की लता को सुर में गाता देख पिता ने किया संगीत सिखाने का फैसला
लता दीदी के पिता संगीतकार थे। इसी वजह से घर में हर समय संगीत का माहौल रहता था। लोग उनसे संगीत सीखने आते थे, नाटकों के गानों की दिनभर रिहर्सल होती थी। लता दीदी भी संगीत सुना करती थीं, लेकिन वो पिता के सामने नहीं गाती थीं। जब उनकी मां किचन में खाना बनाती थी, तो वो उनके सामने गीत गाती थीं। इस पर उनकी मां उन्हें डांटकर भगा देती थीं।
एक दिन दीनानाथ घर पर किसी को संगीत सिखा रहे थे। तभी अचानक उन्हें किसी काम की वजह से घर के बाहर जाना पड़ा। जाते वक्त उन्होंने उस संगीत सीखने आए शख्स से कहा- मैं थोड़ी देर में आता हूं, तुम तब तक रियाज करो। ये सारी बातें गैलरी में खड़ी 5 साल की लता दीदी सुन रही थीं। दीनानाथ के चले जाने के बाद उस शख्स ने रियाज शुरू किया, लेकिन गलत सुर के साथ। इस पर लता दीदी ने उन्हें टोक दिया और गाकर बताया कि ऐसे गाओ। लता दीदी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि पीछे खड़े होकर पिता उन्हें सुन रहे हैं। पिता को देखते ही वो मां के पास किचन में भाग गईं। इस घटना के बाद दीनानाथ ने उन्हें 6 बजे ही उठाकर संगीत सिखाना शुरू कर दिया।
9 साल की उम्र में दिया पहला स्टेज परफॉर्मेंस, गाने के बाद पिता की गोद में सो गईं
पिता दीनानाथ ड्रामा कंपनी चलाते थे। एक दिन कंपनी के कुछ लोगों ने उनसे आकर कहा कि वो भी अपना एक क्लासिकल परफॉर्मेंस दें। वो इस बात पर राजी हो गए। 9 साल की लता दीदी ने भी उनके साथ परफॉर्मेंस देने की जिद की। पहले तो पिता ने मना कर दिया, लेकिन जब उन्होंने कहा कि वो खंबावती राग में गाएंगी, तब पिता ने हामी भरी।
फिर उसी शाम वो अपने पिता के साथ परफॉर्मेंस देने गईं। पहले लता दीदी ने परफॉर्मेंस दीं जिन्हें लोगों ने बहुत सराहा। उनके बाद दीनानाथ ने परफॉर्मेंस दीं। जब वो गीत गा रहे थे, तब लता दीदी उन्हीं के गोद में सो गईं। उन्हें गोद में सुलाए ही दीनानाथ ने अपनी पूरी परफॉर्मेंस दी।
करियर का पहला गाना कभी नहीं हुआ रिलीज
1942 की फिल्म किती हसाल के संगीतकार सदाशिवराव निवरेकर लता के पिता के बहुत अच्छे दोस्त थे। इस फिल्म के लिए वो लता की आवाज में एक गाना चाहते थे। उन्होंने ये बात जब पिता दीनानाथ को बताई तो उन्होंने मना कर दिया। वो नहीं चाहते थे कि लता दीदी कभी भी फिल्म इंडस्ट्री में काम करें। निवरेकर ने उन्हें अपनी दोस्ती की कसम देकर लता को गाने के लिए मना लिया। लता ने उस फिल्म का गाना गाया, लेकिन बाद में वो फिल्म भी रिलीज नहीं हुई और ना ही गाना।
तंगी की वजह से फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ीं, 25 रुपए थी पहली फीस
इसके कुछ समय बाद अप्रैल 1942 में लता दीदी के पिता का निधन हो गया। उनके चले जाने से परिवार की पूरी जिम्मेदारी छोटी उम्र की लता के कंधे पर आ गई। इसी दौरान मास्टर विनायक ने उन्हें अपनी मराठी फिल्म पहिली मंगला गौर के लिए अप्रोच किया। पैसों की जरूरत थी तो उन्होंने हां कर दी और फिल्म में एक छोटा सा रोल भी किया। साथ में उन्होंने फिल्म के गाने नटली चैत्राची नवलाई गाना भी गाया। इस गाने के लिए उन्हें 25 रुपए फीस मिली थी और फिल्म में रोल के लिए कुल 300 रुपए। इसके बाद उन्होंने मास्टर विनायक की कंपनी में काम किया।
पैसों की कमी की वजह से घर खाली करने की नौबत आ गई थी
जब लता परिवार के साथ कोल्हापुर आईं तो मास्टर विनायक के दिए हुए एक मकान में रहती थीं। 1947 में मास्टर विनायक का निधन हो गया। इसके बाद उनके रिश्तेदारों ने लता पर घर खाली करने का दबाव डालना शुरू कर दिया।
इसी बीच एक कैमरामैन लता से मिलने आए। उन्होंने कहा- एक हरिश्चंद्र बाली हैं, जो आपसे मिलकर आप का गाना सुनना चाहते हैं। अगले दिन उन्होंने जाकर उनसे मुलाकात कीं। उन्होंने लता को सुना और गाना गाने का मौका दिया। इसके बदले उन्होंने लता को 14 हजार रुपए दिए थे। उसी पैसे को लता ने घर के किराए के रूप में दिया। फिर जाकर उन्हें उस घर में रहने दिया गया।
जब आवाज पतली कहकर रिजेक्ट किया गया
जब वो हरिश्चंद्र बाली के फिल्म के गाने को रिकाॅर्ड कर रहीं थीं, तभी एक पठान ने उनकी आवाज सुनी। बिना रुके ही वो शख्स चला गया गुलाम हैदर अली से मिलने। पठान ने उनसे कहा- कोई एक नई लड़की आई है, जो बहुत ही उम्दा गाती है। आप उसे बुलाकर एक बार जरूर सुनें। मास्टर गुलाम हैदर अली ने मिलने के लिए हामी भर दी।
लता दीदी के पास मास्टर हैदर अली से मिलने का मैसेज आया। अगले दिन वो अपनी मौसेरी बहन के साथ मास्टर गुलाम हैदर अली के स्टूडियो मिलने गईं। वहां पर वो सुबह से शाम तक उनका इंतजार करती रहीं। आखिरकार उनकी मुलाकात मास्टर हैदर अली से हुई। उन्होंने इतना लंबा इंतजार कराने के लिए माफी मांगी, फिर गाना सुनाने को कहा। वो लता से बहुत प्रभावित हुए।
मास्टर हैदर अली ने लता की मुलाकात प्रोड्यूसर शशधर मुखर्जी से करवाई, जो उस समय फिल्म शहीद पर काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने लता को काम देने से इनकार कर दिया। मुखर्जी ने कहा- इस लड़की की आवाज बहुत पतली है। इस पर मास्टर हैदर अली ने कहा- आने वाले दिनों में प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इस लड़की के पैरों में गिरकर अपनी फिल्म में गाना गाने की विनती करेंगे।
मास्टर हैदर अली ने दिया था पहला फिल्मी ब्रेक
इसके बाद 1948 में मास्टर हैदर अली ने लता को फिल्म मजबूर का गाना दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का ना छोड़ा दिया जो उनके लिए बड़ा ब्रेक साबित हुआ।
मधुबाला की आवाज बनकर मिली बड़ी पहचान
1948 में लता दीदी ने फिल्म महल का गाना आएगा आने वाला गाया था। इस गाने को मधुबाला पर फिल्माया गया था। ये वही गाना था जिसने लता दीदी को हिंदी सिनेमा में बतौर सिंगर पहचान दिलवाई।
पैसे की कमी की वजह से स्टूडियो पैदल जाती थीं
करियर के शुरुआती दिनों में लता दीदी घर से रिकॉर्डिंग स्टूडियो पैदल जाती थीं। गानों की रिकॉर्डिंग करने के बाद वो खाली टाइम में भी रिकॉर्डिंग स्टूडियो में बैठी रहती थीं। दिन भर बिना कुछ खाए वो पूरे दिन गुजारतीं थीं। वजह ये थी कि उन्हें पता ही नहीं था कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में भी कैंटीन होता है। दूसरी वजह ये भी थी कि उनके पास पैसे कम होते थे। उनके पास एक या दो रुपए होते थे इसलिए घर से भी वो स्टूडियो पैदल जातीं, ताकि उन बचे हुए पैसों से वो घरवालों के लिए सब्जी खरीद सकें। उनका मानना था कि वो भले ही भूखी रहें, लेकिन घरवालों को बिना खाए ना सोना पड़े।
दिलीप कुमार के ताने की वजह से लता दीदी ने सीखी थी उर्दू
एक दिन लता, संगीतकार अनिल बिस्वास और दिलीप कुमार के साथ लोकल ट्रेन से गोरेगांव जा रही थीं। अनिल बिस्वास ने दिलीप कुमार से लता का परिचय कराते हुए कहा- दिलीप ये लता मंगेशकर है और ये बहुत अच्छा गाती है। इस पर दिलीप कुमार ने पूछा कि ये कहां की है। अनिल बिस्वास ने बताया कि ये मराठी है।
मराठी शब्द सुनते ही दिलीप कुमार ने अपना चेहरा अजीब सा बना कर कहा- क्या है ना मराठी लोगों की बोली में थोड़ी दाल-भात की बू (मराठी लोगों को उर्दू नहीं आती हैं) होती है। उनकी ये बात लता दीदी को बहुत बुरी लगी। इसके बाद उन्होंने उर्दू सीखने की ठानी और सीख भी ली।
खुद के गानों को नहीं सुनती थीं
एक किस्सा ये भी मशहूर है कि लता दीदी अपने गाए हुए गानों को नहीं सुनती थीं। उनका मानना था कि अगर वो खुद गानों को सुनेंगी, तो उसमें 100 कमियां तो जरूर मिलेंगीं।
1958 की फिल्म मधुमति के लिए मिला पहला अवॉर्ड
लता मंगेशकर को करियर का पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड 1958 की फिल्म मधुमति के गाने आजा रे परदेसी के लिए मिला था। इस गाने को सलिल चौधरी ने कम्पोज किया था। उन्हें दूसरा फिल्मफेयर मिला था कहीं दीप जले कहीं दिल के लिए जो उन्होंने फिल्म बीस साल बाद के लिए गाया था।
जब लता दीदी को जहर देकर किसी ने जान से मारने की कोशिश की…
33 साल की उम्र में लता स्वर कोकिला बन चुकी थीं। किसी को उनकी तरक्की से इतनी जलन थी कि उन्हें जहर देकर मारने की कोशिश की। ये लता की जिंदगी का सबसे कठिन और भयानक दौर था। इस वजह से उन्हें 3 महीने तक बेड पर रहना पड़ा। शरीर इस कदर कमजोर हो गया था कि वो बेड से उठ भी नहीं पाती थीं, चलना तो दूर की बात थी। उनके इस कठिन समय में मजरूह सुल्तानपुरी उनका सहारा बने। मजरूह दिनभर अपना काम करके शाम को लता के पास जाकर उनको कविताएं सुनाया करते थे और उनका मन बहलाया करते थे।
अपने इस कठिन समय को याद करते हुए लता दीदी ने एक बार कहा था- अगर मजरूह इस मुश्किल वक्त में मेरे साथ ना होते, तो शायद मैं इस मुश्किल दौर से ना उबर पाती। अफवाह ये भी थी कि इस हादसे की वजह से लता दीदी ने अपनी आवाज खो दी थी। हालांकि बाद में उन्होंने इस बात का खंडन करते हुए कहा था- मैंने अपनी आवाज कभी नहीं खोई थी।
बाद में किसने उन्हें जहर दिया है, उस इंसान का पता लता दीदी को चल गया था। उस शख्स के खिलाफ उनके पास पुख्ता सबूत नहीं था। जिस वजह से उसके खिलाफ पुलिस कार्रवाई न हो सकी।
बीमारी के बाद पहले गाने से जीता फिल्मफेयर अवार्ड
लंबे इलाज के बाद लता दीदी ने गाना कहीं दीप जले कहीं दिल गाया था। इस गाने की रिकॉर्डिंग ठीक से हो गई। बाद में उन्हें इस गाने के लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला।
क्लासिकल सिंगर ना बन पाने का ताउम्र रहा मलाल
पिता के निधन के बाद घर पर सभी जिम्मेदारियां लता दीदी के कंधे पर आ गई थीं। जिस वजह से उन्होंने फिल्मों में बतौर एक्टर और सिंगर काम करना शुरू कर दिया। इस वजह से उन्हें क्लासिकल संगीत का रियाज करने का पर्याप्त समय नहीं मिलता था। इस वजह से क्लासिकल संगीत उनसे पूरी तरह छूट गया। करियर की ऊंचाइयों पर पहुंच जाने के बाद भी उन्हें इस बात का मलाल रहा कि वो एक क्लासिकल सिंगर ना बन सकीं।
उसूलों की पक्की थीं लता दीदी
लता दीदी द्विअर्थी शब्दों वाले गाने नहीं गाती थीं। इस वजह से कई राइटर्स के साथ उनकी अनबन हो जाती थी। कई राइटर्स को लता दीदी की वजह से गाने के शब्द बदलने पड़े।
रफी साहब से नाराजगी ऐसी कि 4 साल तक उनके साथ काम नहीं किया
एक बार लता दीदी और रफी साहब में गानों की रॉयल्टी लेने के लिए बहस छिड़ गई थी। लता जी गायकों को रॉयल्टी मिलने के पक्ष में थीं, जबकि रफी का कहना था कि गायकों को गाना गाने की फीस मिल रही है तो रॉयल्टी की क्या जरूरत। बहस ऐसी छिड़ी कि दोनों ने तय किया वो साथ में काम नहीं करेंगे। करीब 4 साल तक साथ में कोई गाना नहीं गाया, ना ही कोई मंच साझा किया।
ओ.पी. नैय्यर के लिए नहीं गाया गाना
लता ने कामयाबी मिलने के बाद तमाम बड़े म्यूजिशियन्स के साथ काम किया, लेकिन संगीतकार ओ.पी. नैय्यर ने कभी उन्हें मौका नहीं दिया। लता की आवाज हर संगीतकार के लिए गाने के हिट होने की गारंटी होती थी, लेकिन ओ.पी. नैय्यर का मानना था कि उनकी बनाई धुनों पर लता की आवाज फिट नहीं बैठती।
1955 में बनीं म्यूजिक डायरेक्टर
कामयाब सिंगर बनने के बाद लता मंगेशकर ने बतौर म्यूजिक डायरेक्टर मराठी फिल्म राम राम पवहाने फिल्म की। इसके बाद उन्होंने आधा दर्जन मराठी फिल्मों के लिए भी कंपोजिशन किया।
प्रोडक्शन की शुरुआत की, लेकिन बात नहीं बनी
लता मंगेशकर ने 1990 में अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया था। इस बैनर तले उन्होंने फिल्म लेकिन प्रोड्यूस की थी, जिसे गुलजार ने निर्देशित किया था। इसके बाद लता ने फिल्में प्रोड्यूस करनी बंद कर दीं। प्रोडक्शन हाउस शुरू करने से पहले भी लता वादल (मराठी फिल्म), झांझर और कंचन गंगा जैसी फिल्मों में पैसे लगा चुकी थीं।
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