फिलहाल तो मोहन भागवत अपनी ही भागवत कथा में फँस गये लगते हैं। मुम्बई में संत रविदास की जयन्ती पर दिये अपने भाषण में उन्होंने दलितों को लुभाने के लिए जो जाल बिछाया था, वह उलटा पड़ गया लगता है। स्वाभाविक भी है, असत्य के साथ अनवरत प्रयोग करने का यही नतीजा निकलता है, क्योंकि झूठ के साथ यह दिक्कत है कि उसे हमेशा याद रखना पड़ता है, इसलिए अक्सर भूलने और जिसे मनोविज्ञान की भाषा में “फ्रायडियन स्लिप” कहते हैं, उसकी चपेट में आने के खतरे होते हैं। भागवत के साथ यही हुआ है।
इस समारोह में बोलते हुए आरएसएस सरसंघचालक भागवत ने कहा कि “शास्त्रों के अनुसार हिंदू धर्म में कोई जाति या वर्ण उच्च या निम्न नहीं है। ईश्वर ने कोई जाति नहीं बनाई। भगवान् के लिए सभी लोग समान हैं। उच्च जाति या निम्न जाति की अवधारणा पंडितों ने बाद में बनाई, जो गलत था, क्योंकि इसका कोई आधार नहीं है।” असत्य के प्रयोग के इस जाल से जिन मछलियों को वे फाँसना चाहते थे, वे तो हत्थे नहीं चढ़ी, उलटे खुद विचार-कुटुंब के सहोदर, वर्णाश्रम के घड़ियाल और जाति श्रेणीक्रम के मगरमच्छ जरूर लपक लिए। इस कदर लपके कि इन पंक्तियों के लिखे जाने के सप्ताह भर से ज्यादा गुजर गया ; कहे से मुकरने, उसे नए तरीके से व्याख्यायित करने, फैले को समेटने, बिगड़े को थोड़ा सुधारने की एक के बाद एक जितनी हड़बड़िया कोशिशें की जा रही हैं, सब उल्टी प रही हैं। पहले समाचार एजेंसी एएनआई से कहलवाया गया कि अनुवाद में गलती हो गयी, पंडित नहीं, “कुछ पंडित” कहा था। मगर फिर भी सार वही रहा। इसके बाद तुलसी का ताड़ना फॉर्मूला अपनाया गया कि “पंडित का मतलब बामन नहीं था, मराठी में पंडित का मतलब विद्वान होता है।” मतलब यह कि कृपया विप्र गण कुपित न हों, विद्वान् बुरा मानना चाहें, तो भले मान लें।
इस वितंडा पर न जाएँ, तो भी भागवत जी का बयान दिलचस्प है, इसलिए कि यह श्रीमुख – हॉर्सेज माउथ – से आया है। इसलिए और ज्यादा दिलचस्प है कि यह आरएसएस – जिसके वे सरसंघचालक हैं – की धुरी धारणा के एकदम विपरीत है। हिन्दू-राष्ट्र के नाम पर जिस तरह का राज उनका संगठन स्थापित करना चाहता है, यह बयान उसकी बुनियाद पर ही हमला करता है। अनेक सुधारों, संशोधनों के बावजूद जो अर्थ बचता है, क्या भागवत सर अपने इस कथन के बारे में श्योर हैं, एकदम पक्के हैं?
यदि हाँ, तो फिर तो उन्हें हिन्दुत्व शब्द के जनक और सूत्रधार सावरकर और अपने संगठन के परमपूज्य कहे जाने वाले एम एस गोलवलकर के कहे से पल्ला झाड़ना होगा, उसे अस्वीकृत और तिरस्कृत करना होगा। जिसके आधार पर संघ घोषित रूप से भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना चाहता है, जिसे वह भारत के संविधान की जगह प्राण-प्रतिष्ठित करना चाहता है, उस मनुस्मृति को धिक्कारना होगा। बिना ऐसा किये, वे यह कैसे बोल सकते हैं? यदि इस सबके बावजूद वे यह बोल रहे हैं, तो या तो वे अपने खुद के “आदर्शो और आराध्यों” के साथ दगा कर रहे हैं, (यदि ऐसा है, तो बढ़िया है!) या देश की जनता के साथ धोखा कर रहे हैं, (यदि ऐसा है, तो इसमें नया कुछ भी नहीं है।)।
जिसे भागवत पंडितों या कुछ पंडितों या उनके प्रवक्ता की भाषा में “विद्वानों” की कारस्तानी बता रहे हैं, वर्ण या जाति की उंच नीच को गलत बता रहे हैं, उस वर्णव्यवस्था – जो जाति संरचना की मुख्य गटर है – के बारे में सावरकर ने अपनी 1923 की पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ में लिखा है और जिसका मराठी, अंगरेजी, हिंदी सहित सभी भाषाओं में एक ही अनुवाद हुआ है, वह है, कि ‘”वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है।” यह भी कि “जिस देश में चातुर्वर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त नहीं है।”
और आगे बढ़कर सावरकर इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श होगा।” वे यह भी कहते हैं कि “सन 1818 में यहां देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी।” ध्यान रहे, यह वही पेशवाशाही है, जिसे हिन्दू पदपादशाही के रूप में फिर से कायम कर आरएसएस एक राष्ट्र बनाना चाहता है और इसी को वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ बताता है। यह पेशवाशाही क्या थी, इसे जानने के लिए जोतिबा फुले की ‘गुलामगीरी’ या भीमा कोरेगांव की संक्षेपिका पढ़ना काफी है।
सावरकर के बाद आरएसएस के सर्वोच्च विचारक उनके प.पू. गुरूजी माधव सदाशिव गोलवलकर हैं। इस बारे में उनके श्रीमुख से ही जान लेते हैं। 1939 में लिखी “हम और हमारी राष्ट्रीयता” नाम की किताब, जो संघ की गीता है, मे वे कहते हैं कि “देश को एक अच्छा राष्ट्र बनाने के लिए शक्ति और गौरव के कारकों के अतिरिक्त, कुछ और कारक, अत्यंत आवश्यक हैं, उसमें समाज के वे चारों वर्ण हैं, जिनकी परिकल्पना हिन्दू धर्म में की गई हैं और वह लुटेरों और म्लेच्छों से मुक्त होना चाहिए।” उन्होंने म्लेच्छों को भी स्पष्ट रूप में परिभाषित किया और कहा कि “म्लेच्छ वह व्यक्ति होता है, जो हिन्दू धर्म और संस्कृति द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों को नहीं मानता।” मतलब यह कि जो वर्णव्यवस्था और जाति श्रेणीक्रम का विरोध करे, उसका त्याग करे, वह म्लेच्छ है।
इसी बात को और आगे बढ़ाते हुए गोलवलकर “बंच ऑफ़ थॉट” में दावा करते हैं कि “जातियां प्राचीन काल में भी थीं और वे हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन के हजारों सालों तक बनी रहीं। परन्तु कहीं भी, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि उनके कारण समाज की उन्नति में कोई बाधा आई हो या उनने सामाजिक एकता को तोड़ा हो। बल्कि उनने सामाजिक एकजुटता को मजबूती दी।” (पृष्ठ 108)
मोहन भागवत ने वर्ण और जाति को ईश्वर की नहीं, पंडितों या कुछ पंडितों की हरकत बताया है। आज यदि उनके गुरु जी होते, तो उन्हें कान पकड़कर स्कूल से बाहर निकाल देते। गुरु जी ने मुंबई से प्रकाशित मराठी दैनिक ‘नवा काल’ के 1 जनवरी 1969 के अंक में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कहा था कि “वर्ण व्यवस्था ईश्वर की निर्मिती है और मनुष्य कितना भी चाहे, उसे नष्ट नहीं कर सकता।” इसलिए जब मोहन भागवत संत रविदास के बहाने जो भी कुछ कह रहे थे, वह सिवाय आँखों में धूल झोंकने के और कुछ नहीं था।
इस झूठ की निराधारता के लिए बाकी वेद, पुराण, आख्यान महाख्यान, महाभारत, रामायण, जिन पर हाल में तुलसी के चक्कर में पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, को छोड़ कर सिर्फ भगवदगीता को ही लेना काफी है। गीता वह किताब है, जिसे आरएसएस हिन्दू राष्ट्र में पवित्रतम पुस्तक का वही दर्जा देना चाहता है, जो इस्लाम में कुरान, ईसाईयत में बाइबिल, यहूदियों में तोरा, पारसियों में अवेस्ता का है। यह गीता क्या कहती है? इसमें कृष्ण दावा करते हैं कि :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।13।।
अर्थात “चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) मैंने ही बनाये हैं – मैं ही उनका कर्ता हूँ, लेकिन अब मैं भी चाहूँ तो अकर्ता नहीं हो सकता। मतलब यह कि अब मैं भी इन्हे समाप्त नहीं कर सकता।”
क्या मोहन भागवत कृष्ण के इस गीतोपदेश से अपनी और संघ की असंबध्दता और इसके गलत होने की स्वीकारोक्ति करेंगे? अगर नहीं, तो फिर आखिरकार वे चाहते क्या हैं ?
फिलहाल वे एक धोखे की आड़ चाहते हैं, ताकि वे एक साथ वर्णाश्रम और मनुस्मृति आधारित ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने और उसी के साथ, उसके लिए सर्व हिन्दू चेतना और एकता बनाने के असाध्य को साध सकें। संघ की विपन्नता यह है कि भारत की दार्शनिक और धार्मिक परम्परा में उनके पास ले-देकर सिर्फ मनु ही हैं। उन्हें उसे लाना भी है और बीच-बीच में अलग सुर की पीपनी बजाकर बहकाना भी है। मुम्बई में उन्होंने ऐसा ही करने की कोशिश की, मगर जैसी कि कहावत है इस बार वैसा ही हो गया : “हलुआ मिला न मांड़े – दोऊ दीन से गए पांड़े।”
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