“जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।”
राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात रामधारी सिंह दिनकर की अमर कृति ‘रश्मिरथी’ की ये बहुउद्यृत पंक्तियां तभी से याद आ रही हैं, जब प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के जवाब में अपने डेढ़-डेढ़ घंटे लंबे भाषण में, पहले लोकसभा में और फिर राज्यसभा में, दुष्यंत कुमार की कविता की पंक्तियों का सहारा लिया था। और दिनकर की उक्त पंक्तियां, जिनमें करीब चार सौ साल पहले, महाकवि माने जाने वाले तुलसीदास द्वारा रामचरित मानस में लिखी गयी इसी आशय की पंक्तियों—जाको प्रभु दारुण दु:ख देहीं, तासु सुमति पहले हर लेहीं — की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है, संसद में उक्त बहस के बाद से जो कुछ हुआ है, उससे और भी बलपूर्वक याद आ रही हैं।
लेकिन क्यों? क्योंकि यह पूरा घटनाक्रम इसका एक और बड़ा सबूत है कि मौजूदा सत्ता का विवेक पूरी तरह से मर चुका है और जनतंत्र के दायरे में ऐसी विवेकहीन सत्ता का नाश निश्चित है! बेशक, ऐसी विवेकहीन सत्ता खुद जनतंत्र का ही नाश करने की कोशिश से भी नहीं हिचकेगी, बल्कि उसी की तो कोशिश कर रही है, लेकिन आधे-अधूरे ही सही, जनतंत्र की हवा में सांस लेना सीख चुकी इस देश की जनता, किसी सत्ताधारी को इतनी आसानी से जनतंत्र को नष्ट नहीं करने देगी। कम-से-कम इमरजेंसी के अंत का अनुभव तो यही बताता है।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस में, जो प्रधानमंत्री मोदी के विशेष कृपापात्र माने जाने वाले, अडानी समूह की ठगी तथा हेराफेरी के, अमरीकी शॉर्ट सेलिंग फर्म हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के रहस्योद्घाटनों की पृष्ठभूमि में, राष्ट्रपति के अभिभाषण के फौरन बाद दो दिन से ज्यादा संसद की कार्रवाई, विपक्ष की उच्चस्तरीय जांच की मांग के चलते ठप्प रहने की पृष्ठभूमि में हुई थी, स्वाभाविक रूप से विपक्ष ने इस गोदी पूंजीपति को अनुचित तरीकों से आगे बढ़ाने तथा अब ठगी के आरोपों से बचाने के लिए, मोदी सरकार को घेरा था। इस क्रम में अन्य विपक्षी सांसदों के अलावा सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के शीर्ष नेता की हैसियत से राहुल गांधी ने, लोकसभा में और कांग्रेस अध्यक्ष खडगे ने राज्यभा में, मोदी सरकार से खासतौर पर तीखे सवाल किए थे।
लेकिन, बहस के अपने तालठोक जवाबों मेें, जिसमें राज्यसभा में तो प्रधानमंत्री की बाकायदा छाती ठोककर, ”एक अकेला सब पर भारी” की डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-नुमा गर्वोक्ति भी शामिल थी, प्रधानमंत्री मोदी ने उचित-अनुचित हमले तो बहुत किए और अपनी सरकार की कामयाबियों के सच्चे-झूठे दावे भी जी भर कर किए, पर इसे भी अपनी मन की बात ही बनाए रखा।
प्रधानमंत्री ने विपक्ष के किसी भी सवाल का जवाब देना तो दूर रहा, एक भी सवाल का नोटिस तक लेना गवारा नहीं किया। और अगले दिन से ही अपने उद्घाटन-चुनाव प्रचार अभियान पर निकल गए, जो प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अब तक उनका मुख्य काम रहा है, जब वह विदेश यात्रा पर नहीं होते हैं।
बहरहाल, यह विवेकहीनता यहीं पर खत्म नहीं हो गयी। पहले लोकसभा के स्पीकर ने राहुल गांधी के भाषण के खासे बड़े अंश को, जिसमें सरकार से पूछे गए उनके अनेक सवाल भी शामिल थे, इस आधार पर संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया कि उनमें ‘अप्रमाणित’ या बिना साक्ष्यों के आरोप लगाए गए थे। मोदी राज के साढ़े आठ साल में जिस तरह तमाम वैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता को नष्ट किया गया है और उन्हें सीधे प्रधानमंत्री के अंगूठे के नीचे लाने की काफी हद तक सफल कोशिश की गयी है, उसे देखते हुए संसद के दोनों सदनों के बहुमत से निर्वाचित सभापतियों के, सत्ताधारी पार्टी की कठपुतली बनाए जाने और उनके जरिए, संसद को ही कार्यपालिका का रबर स्टाम्प बनाए जाने में, अचरज की कोई बात नहीं है।
इसी प्रवृत्ति के नंगे प्रदर्शन में, 2020 में अभूतपूर्व संख्या में विपक्षी राज्यसभा सदस्यों को सदन से निलंबित करते हुए, उन तीन कृषि कानूनों पर संसदीय मोहर लगवाई गई थी, जिन्हें बाद में किसानों के साल भर लंबे ऐतिहासिक आंदोलन के बाद, मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा था। जाहिर है कि 2019 में मोदी की सत्ता में वापसी को, मौजूदा राज की मनमानी के लिए जनता का अनुमोदन मानते हुए, इस तरह की जनतंत्रविरोधी दीदादिलेरी और बढ़ा दी गयी है। लोकसभा अध्यक्ष के उक्त फैसले के साथ, जो खुद वर्तमान स्पीकर के रिकार्ड के हिसाब से भी पहली बार ही किया गया है, ताल से ताल मिलाते हुए, राज्यसभा के सभापति ने भी कांग्रेस के अध्यक्ष, खडगे के भाषण के कई हिस्सों को उड़ा दिया।
भारत के संसदीय इतिहास और संसदीय प्रक्रियाओं के ज्यादातर जानकारों के अनुसार, संसद के दोनों सदनों की आसंदी का अप्रमाणित होने के आधार पर, सदन में किसी सदस्य के वक्तव्य को इस तरह कार्यवाही से निकालना, न सिर्फ अलोकतांत्रिक तथा संसदीय परंपराओं के विरुद्घ है बल्कि पूरी तरह से बेतुका भी है। इसकी अलोकतांत्रिकता इस तथ्य में निहित है कि यह इस अर्थ में संसद के जरिए, जनता के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने का रास्ता ही रोक देता है कि जांच करने तथा साक्ष्य एकत्र करने की तमाम शक्तियां, सिर्फ कार्यपालिका के पास हैं। ऐसे में अगर संसद में जनता के प्रतिनिधियों को संदेह जताने और संदेहों की जांच कराने की मांग करने से ही रोक दिया जाता है, तो इसका अर्थ तो कार्यपालिका को संसद के सामने जवाबदेही से ही बरी करना होगा, जबकि कार्यपालिका की यह जवाबदेही ही संसदीय व्यवस्था की जान है।
यह संयोग ही नहीं है कि प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों में अपने संबोधनों में, सारे सवालों का जवाब सिर्फ और सिर्फ इसी दलील से देने की कोशिश की थी कि — मेरे राज ने कितने-कितने लोगों पर क्या-क्या उपकार किए हैं या यह कि मेरे साथ एक सौ चालीस करोड़ भारतीयों का आशीर्वाद है। इसी दलील से ‘मोदी इज इंडिया’ का विस्तार करते हुए, ‘अडानी इज इंडिया’ भी कर दिया गया है और अडानी के घपलों-घोटालों की आलोचना को, भारत की विकास गाथा और तरक्की पर हमला बताकर, घोटालेबाज का ही नहीं, घोटालेबाजी का भी बचाव करने की कोशिश की जा रही है।
जैसा कि अनेक संसदीय इतिहास के जानकारों ने रेखांकित किया है, भारत के संसदीय इतिहास में, सदस्यों के भाषणों में इससे पहले कभी इस तरह की राजनीतिक काट-छांट और खासतौर पर प्रधानमंत्री को हर प्रकार की आलोचना से ऊपर रखने वाली काट-छांट इससे पहले नहीं की गई थी। लेकिन, इसके अलावा भी जैसाकि अनेक टीकाकारों ने ध्यान दिलाया है, अगर अप्रमाणित दावों को संसदीय कार्रवाई से हटाए जाने का ही नियम चलाना है, तो प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों में अपने दो अलग-अलग दिनों में दिए गए लंबे-लंबे भाषणों में, जो दर्जनों अप्रमाणित दावे किए थे, उन पर सदन के सभापतियों की नजर क्यों नहीं पड़ी और उन्हें भी कार्रवाई से क्यों नहीं निकाला गया। जाहिर है कि पूरा खेल बड़ी दीदादिलेरी से की जा रही मनमानी का है। जाहिर है कि बढ़ती तानाशाही के ईकोसिस्टम में, सदनों के भाजपाई सभापति भी, अपने आका की सेवा में खुद को भी छोटे तानाशाहों के रूप में देखते हैं, जिनकी किन्हीं भी नियम-कायदों के प्रति कोई जवाबदेही ही नहीं है।
बहरहाल, यह किस्सा इतने पर भी खत्म नहीं हो जाता है। इस सब के बाद भी, भाजपा के एक सांसद के राहुल गांधी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के आरोप के बहाने से, लोकसभा स्पीकर की ओर से उनसे सफाई देने को कहा गया है कि क्यों न उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई की जाए। भाजपा सांसद की शिकायत में प्रधानमंत्री मोदी के संबंध में ‘दस्तावेजी सबूत’ के बिना आरोप लगाने तथा ‘सदन को गुमराह करने’ का आरोप लगाया गया है।
भाजपा सांसद का दावा है कि राहुल गांधी की टिप्पणियां अवमाननापूर्ण, असंसदीय तथा भ्रामक थीं। इसके समानांतर, संसदीय कार्यमंत्री ने भी राहुल गांधी की आलोचनाओं को प्रधानमंत्री के खिलाफ ‘असंसदीय, अपमानजनक आरोप’ बताते हुए, उन्हें संसदीय कार्यवाही से निकाल देने की लोकसभा अध्यक्ष से प्रार्थना की थी। असली मुद्दा यह नहीं है कि इस खास मामले में यह कार्रवाई कहां तक जाएगी या कांग्रेस नेता द्वारा इसका किस तरह का जवाब दिया जाएगा।
असली मुद्दा यह है कि जिस तरह मीडिया की मुख्यधारा में आलोचनात्मक स्वरों को साम-दाम-दंड-भेद के सारे हथकंडों को आजमा कर चुप करा दिया गया है, जिनमें तरह के तरह मुकदमों में उलझाना भी शामिल है, उसी प्रकार अब संसद के भीतर भी विरोध की और खासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की आवाजों को दंड का डर दिखाकर और उससे भी काम न चले तो सदन की सदस्यता से निलंबन से निष्कासन तक के जरिए, चुप कराने की कोशिश की जा रही है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह आजम खान की विधानसभा की सदस्यता खत्म कराई गई है, इसकी एक बड़ी चेतावनी है कि चुना जाना भी, मौजूदा सत्ता के विरोधियों के लिए पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं कराता है।
जाहिर है कि यह सब करने की दीदादिलेरी, तानाशाही की धमक भी है, तो सत्ता के विवेक के मर जाने का संकेत भी है, जो देर से नहीं, बल्कि सबेर ही उसके विनाश की ओर ले जाएगा। चलते-चलाते इसी दीदादिलेरी के एक और प्रसंग को दर्ज करा दें। राज्यपाल के पद और राजभवनों को मोदी राज में किस तरह सत्ताधारी पार्टी के प्रकट विस्तारों में तब्दील किया गया है, यह तो खैर किसी से छुपा हुआ नहीं है। बहरहाल, हाल में हुईं राज्यपाल पदों पर करीब आधा दर्जन नयी नियुक्तियों में, सुप्रीम कोर्ट से हाल में ही सेवानिवृत्त हुए न्यायाधीश, अब्दुल नजीर के नाम पर आई आलोचनाओं के जवाब में, मोदी सरकार के कानून मंत्री खुद तलवार लेकर मैदान में उतर पड़े हैं।
याद रहे कि सेवानिवृत्ति के चंद हफ्तों में ही आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से नवाजे गए अब्दुल नजीर, बाबरी मस्जिद के खिलाफ एकमत से फैसला सुनाने वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बैंच में से तीसरे सदस्य हैं, जिन्हें सेवानिवृत्ति के फौरन बाद, बड़ा पद दिया गया है। गोगोई को पहले ही राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जा चुका है। इस बेशर्मी के बढ़-चढ़कर बेशर्म हमले से बचाव को, विनाशकाले विपरीत बुद्घि नहीं, तो और क्या कहेंगे!
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