कवर्धा -भोरमदेव में प्रत्येक वर्ष चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तेरस को दशकों से बैगा आदिवासी बाबा भोले नाथ जिसे वे आदि देव बूढ़ादेव के रूप में पूजते है की विशेष पूजा अर्चना करते आ रहे है । इस दिन यहाँ दशको से भव्य और विशाल मेला भी भरते आ रहा है । इस मेले में शामिल होने आज भी दूर – दूर से बीहड़ जंगलो व दुर्गम पहाड़ीयो में बसे बैगा आदिवासी रात दिन पैदल चल सपरिवार बाबा भोरमदेव का दर्शन कर पारंपरिक रीती रिवाजो से पूजन कर आशीर्वाद लेने एवं मेले का लुफ्त उठानेमेले में शामिल होने बैगा आदिवासी अपनी परंपरिक वेश भूषा में साज श्रृंगार के साथ पहुंचते थे और अपनी पारंपरिक रितिरिवाजो से पूजा अर्चना करते थे । पर समय के साथ बदलाव भी आये है । आधुनिकता की छाप भी धीरे धीरे पड़ने लगी है । बैगा की नई पीढ़ी में पहनावे में बदलाव का असर दिखने लगा है । मोटरसायकल चलाते बैगाओं का दिखना आम है ।
पहले भोरमदेव मन्दिर के उत्तर द्वार पर स्थित भैरव देव में बलि दी जाती थी उसे 1974के आसपास प्रशासन,जैन समाज,हिन्दू समाज तथा भोरमदेव तीर्थकारिणी प्रबंध समिति के सहयोग से बंद कराया गया था।
एक समय था कि मेला अवधि को छोड़कर अन्य अवधि में भोरमदेव मन्दिर क्षेत्र में रात्रि में रुकने की मनाही थी।
मेले से महोत्सव तक के सफर में आदिदेव बुढ़ादेव (भोरमदेव) के आँगन में आदिवासियों की सभ्यता एवं संस्कृ़ति की पहचान तेरस के मेले को पहली बार भोरमदेव महोत्सव वर्ष 1994 में 27 ,28 व् 29 मार्च को अविभाजित मध्यप्रदेश में तत्कालीन राजनांदगांव कलेक्टर अनिल जैन की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुआ था । उस समय कवर्धा के एस डी ओ राजस्व निसार अहमद हुआ करते थे । पहले भोरमे देव महोत्सव में 2 दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम तो भोरमे देव मंदिर क्षेत्र में होते थे परंतु तीसरे दिन साहित्यिक गतिविधिया कवर्धा में हुआ करती थी जो अब जिला मुख्यालय बन चुका है । प्रथम भोरमदेव महोत्सव में साऊथ ईस्टर्न कल्चरल सोसायटी द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमो को काफी सराहा गया था । विशेष रूप से माया जाधव और उनकी टीम द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमो को सराहा गया था जिसकी चर्चा काफी दिनों तक होती रही । महाराष्ट्रियन लोक नृत्य गीत लावणी ने बेतहाशा तालिया बटोरी थी तथा महीनो उक्त कार्यक्रम आम लोगो के बीच चर्चा का विषय बना रहा था ।
परंतु भोरमे देव महोत्सव के इन 29 बरस के सफ़र में समय के साथ आदिवासियों के पारंपरिक मेले का सरकारी करण होने से समय के साथ साथ शास्त्रीय संगीत व नृत्य लोक गीत नृत्य के साथ साथ मुम्बइया ठुमके भी लगे है तो पंकज उदास , अनुप जलोटा , अनुराधा पोडवाल , अलका यागिक , ममता चंद्राकर जैसे अंतरराष्ट्रीय कलाकारों की प्रस्तुतियां भी हुई है । आदिवासियो का पारंपरिक मेला आज भोरमेदेव महोत्सव के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही अपनी पहचान बना चूका है परंतु रंगबिरंगी लाईटो और डीजे आर्केस्ट्रा की धुन और मुम्बईया ठुमके के बीच आधुनिकता की दौड़ विकास की चका चौंध के आगे टिमटिमा रही आदिवासी संस्कृति व सभ्यता अपनी पहचान खोती जा रही है । खाना पूर्ति के नाम पर कुछ वर्षो से प्रशासन व जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप के चलते भोरमदेव महोत्सव के मूलरूप रंग और ढाल आधुनिक तौर तरीको से आयोजित करने की परम्परा शुरू हुई तीन दिवसीय महोत्सव राजनीतिक का शिकार बन 2 दिवसीय हुआ । शुरूआत के कुछ वर्षों में बैगा आदिवासियों को अपने मूल संसकृति से जुड़े नृत्य रीती रिवाज एवं गीतों को प्रदर्शन करने मंच मिलता रहा है ।
शासन प्रशासन द्वारा भले ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं सभ्यता बचाने के नाम पर लाखों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं परंतु विगत के कुछ वर्षों के अनुभव से भोरमदेव महोत्सव छत्तीसगढ़ की सभ्यता एवं सस्कृति से दूर बालीवुड की चमक-धमक की ओर आकर्षित हो मुंबईया ठुमकों का मंच बनता दिख्र रहा था , पुर्व के वर्षो से आयोजन के दौरान फिल्मी गानों पर भोरमदेव महोत्सव आयोजन समिति एवं तीर्थ प्रबंधकारिणी कमेटी के साथ-साथ अधिकारी भी बीड़ी जलइले ले जैसे संस्कृति और सभ्यता पर बदनुमा दाग रूपी गानो पर झूमते देखे जा चुके है । अबके बरस स्थानीय कलाकारों को महत्व के साथ साथ सारेगामा फेम कलाकारों का भजन व गीत होना है ।
बहरहाल वर्षो से भोरमदेव महोत्सव का मंच जो अब तक राजनीतिक मंच का रूप अख्तियार कर चुका था अबके बरस राजनीतिक मंच न बना जिले के विभिन्न मंदिरों के पुजारियों को अतिथि बना कर नए परम्परा की शुरुआत हुई है । नेताओ की भाषण बाजी से त्रस्त जनता अब भाषण बाजी से दूर गीत संगीत का आनंद जरूर लेगी और भोरदेव महोत्सव भी पुन: अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त होगा ।
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