“जाति भगवान् ने नहीं, पंडितों ने बनाई है” जैसे बयान के बाद उठ खड़ा हुआ तूमार अभी थम भी नहीं पाया था कि आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत एक नयी थीसिस लेकर आ गए हैं। इस बार उनके निशाने पर वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण, गीता, रामायण, महाभारत सब कुछ है। एक पुराने विज्ञापन के अंदाज में वे एक साथ सब के सब बदल डालने पर आमादा हैं।
नागपुर में एक कार्यक्रम में बोलते हुए संघ प्रमुख भागवत ने कहा कि ” हिंदू धर्म ग्रंथों की दोबारा समीक्षा की जानी चाहिए। हमारे यहां पहले ग्रंथ नहीं थे। हमारा धर्म मौखिक परंपरा से चलता आ रहा था। बाद में ग्रंथ इधर-उधर हो गए और कुछ स्वार्थी लोगों ने ग्रंथ में कुछ-कुछ घुसाया, जो गलत है। उन ग्रंथों, परंपराओं के ज्ञान की फिर एक बार समीक्षा जरूरी है।” इस बयान की पहली रोचकता तो इसे देने के लिए चुना गया स्थान है। उन्होंने यह बात आर्यभट्ट एस्ट्रोनॉमी पार्क के उद्घाटन के दौरान बोली। यह दिलचस्प इसलिए है कि उनके नियंत्रण में चलने वाली भाजपा सरकारें एस्ट्रोनॉमी – खगोल विज्ञान – में नहीं एस्ट्रोलॉजी – फलित ज्योतिष – में ज्यादा विश्वास करती हैं। इतना ज्यादा कि जिन-जिन विश्वविद्यालयों में उनकी चली, उन-उन विश्वविद्यालयों में उन्होंने फलित ज्योतिष को पाठ्यक्रमों में भी लगवा दिया। इस भाषण में भी वे इसका साफ़ इजहार करने से भी नहीं चूके। उन्होंने कहा कि “भारत का पारंपरिक ज्ञान का आधार बहुत बड़ा है, हमारी कुछ प्राचीन किताबें खो गईं, जबकि कुछ मामलों में स्वार्थी लोगों ने इनमें गलत दृष्टिकोण डाला। लेकिन नई शिक्षा नीति के तहत तैयार किए गए सिलेबस में अब ऐसी चीजें भी शामिल हैं, जो पहले नहीं थीं।” इस सिलेबस परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए वे यह भी बोले कि “हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था, जिसके आधार पर हम चले। लेकिन विदेशी आक्रमणों के कारण हमारी व्यवस्था नष्ट हो गई, हमारी ज्ञान की परंपरा खंडित हो गई। हम बहुत अस्थिर हो गए। इसलिए हर भारतीय को कम-से-कम कुछ बुनियादी ज्ञान होना चाहिए कि हमारी परंपरा में क्या है, जिसे शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ लोगों के बीच सामान्य बातचीत के जरिए हासिल किया जा सकता है।”
बहरहाल यहां मुद्दा उस शाब्दिक लफ्फाजी का नहीं है, जिसकी आड़ में बताया कम, छुपाया अधिक जा रहा है। जैसे जिन किताबों के खोने की बात भागवत कर रहे हैं, उनमे बृहस्पति के वार्हस्पत्य सूत्र, चार्वाक के ग्रन्थ और लोकायत या साहित्य नहीं ही है, बुद्ध के उपदेशों के संग्रह भी नहीं है – जिन्हे खुद उनके सनातनियों ने लिखने वालों सहित आग के हवाले कर दिया था। भंडारकर लाइब्रेरी की किताबें भी नहीं ही हैं। फिर वे किन ग्रंथों की बात कर रहे हैं? मनु की यातना संहिता। तुलसी की रामचरितमानस को लेकर हाल में हुए तीखे आक्रोश को लेकर समझा जा सकता है कि यह कुहासा क्यों खड़ा किया जा रहा है। बहरहाल यहां सवाल उस आसन्न महापरियोजना को समझने का है, जिसे इतिहास बदलने की संघी साजिश के साथ आने वाले दिनों में चलाया जाने वाला है ; प्राचीन ग्रंथों में संघ के मनोनुकूल बदलाव कर उन्हें नए तरीके से गढ़ने, उनका पुनर्लेखन करने की यह नयी परियोजना है – जिसे शुरू करने के एलान के लिए उन्होंने आर्यभट्ट के नाम पर बने एस्ट्रोनॉमी पार्क को चुना। ऐसा करके वे सचमुच में कुछ करना चाहते हैं या जिन्हे वे हिन्दू धर्म के ग्रन्थ कह रहे हैं, उनकी ऐतिहासिकता को अपनी तात्कालिक परियोजना के जाल के अनुकूल और कारगर बनाना चाहते हैं? तुर्रा यह है कि “आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास” की तर्ज पर दावा था इतिहास बदलने का, बदलने लग गए धर्म!! इतिहास तो खैर जैसे-तैसे खुद को बच-बचा भी लेगा, मगर हिन्दू धर्म को तो अब संघ की कैंची-कतरनी से रामई राक्खे!! वैसे इसमें भी नया कुछ नहीं है – सब उसी सच्चे आराध्य का अनुकरण है, जिससे ध्वज प्रणाम, ड्रेस और संगठन विधान लेकर आये हैं। उस हिटलर ने भी जर्मनी के चर्च – प्रोटेस्टेंट चर्च – को इसी तरह अपने अनुकूल ढालने की कोशिश की थी। भाई लोगों का इरादा भी कुछ ऐसा ही लगता है।
भागवत हिन्दुओं के जिन धर्म-ग्रंथों की बात कर रहे हैं, उनके प्राचीनतम ग्रंथ वेदों को ही ले लें, तो यह प्रामाणिक सत्य है कि वे तीन चरणों से गुजरे। पहले वे रचने वाले के हिसाब से मंत्र-द्रष्टा हुए, फिर बार-बार दोहराए जाने और सुने जाने के चलते श्रुति हुए और उसके बाद याद में समाहित हो जाने के पश्चात स्मृति हो गए। बहुत बाद में जाकर इन्हे लिखित रूप दिया जा सका। ऐसा स्वाभाविक भी था। आर्यों के पास भाषा थी, मगर कोई लिपि नहीं थी। वे घुमंतू और पशुपालक थे, इसलिए लिपि की ऐसी कोई ख़ास जरूरत भी नहीं थी। जहां गए, वहीं की लिपि अपना ली। भाषा विज्ञान के हिसाब से वेदों की भाषा में सतम शाखा का प्राचीनतम नमूना ऋग्वेद में मिलता है ; इसकी भाषा ई पू 1250 से 1000 वर्ष पहले की है। पारसी ग्रंथ अवेस्ता और ऋग्वेद की भाषा में साम्य है। दोनों की कालावधि भी समान है। मगर वेदों में प्रक्षेपण और बदलाव का संघ प्रमुख का दावा इसलिए सही नहीं बैठता, क्योंकि ये तब की बात है, जब जिस “विदेशी आक्रमण” का जिक्र वे कर रहे हैं, उसका दूर दूर तक पता नहीं था – उलटे खुद वेदों को लाने वाले ही दूर-सुदूर से आये थे। उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों और रामायण, महाभारत जैसे हिन्दू धर्म के लोकप्रिय ग्रंथों के बारे में तो अब अकाट्य रूप से प्रमाणित साक्ष्य है कि उन्हें कब, किसने और कहाँ लिखा।
मनुस्मृति, गौतम स्मृति, नारद संहिता सहित बाकी सभी स्मृतियों और संहिताओं का भी कालखण्ड सबकी जानकारी में है। इन रचनाओं को उनके देश काल – टाइम और स्पेस- में रखकर ही देखा और आंका जाता है। वे थे, समय बदलने के साथ उन्हें ‘थे’ से ‘हैं’ नहीं बनाया जा सकता।
यह बात सिर्फ भारतीय ग्रंथों के बारे में ही सच नहीं, धर्मग्रंथों सहित दुनिया के सभी ग्रंथों के बारे, में यही बात लागू होती है। अनेक पुराणों और महाभारत के आदिपर्व में लिखा है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। सिर्फ बाइबिल में ही नहीं लिखा, भारत में भी गुप्त काल तक यह विश्वास था कि पृथ्वी चौकोर है। बाद में पृथ्वी के गोलाकार होने की बात साबित होने से क्या पीछे जाकर इन ग्रंथों को बदल दिया जाएगा? जाहिर है कि नहीं। उन्हें उनके कालखंड के हिसाब से ही पढ़ा और आज के विज्ञान के आधार पर अस्वीकृत किया जाएगा। किसी ने बीच में यह झूठ घुसेड़ दिया था, ऐसा कहकर खुद को और दूसरों को झांसा नहीं दिया जाएगा। इन ग्रंथों में कहे को नकारा और धिक्कारा जाता है, उनके आधार पर मेधावी मनुष्यों और मानवता के साथ किये गए जघन्य अपराधों के लिए अफ़सोस जताया जाता है। जैसे गैलिलियो के साथ किये गए बर्ताब के लिए वेटिकन के कैथोलिक चर्च ने गैलिलियो की मौत के ठीक साढ़े तीन सौ वर्ष बाद 1992 में माफी माँगी। हालांकि ब्रूनो, कोपरनिकस और पोप और सामंतों के गठजोड़ के शिकार लाखों लोगों से माफी मांगना अभी शेष है। बजाय ग्रंथों में जोड़-घटाव के बहाने बनाने के, सही तो यह होता कि एकलव्य, शम्बूक, सीता और द्रौपदी और ऐसे अनगिनत लोगों के साथ किये गए बर्ताब को धिक्कारा जाता, उसे इतिहास का शर्मनाक अध्याय और धर्मसम्मत पाशविकता बताया जाता, उनसे माफी मांगने की मांग उठाई जाती। इस तरह की क्षमा याचनाये अतीत में किये-धरे के प्रति ग्लानिभाव के साथ भविष्य में ऐसा न करने के अहसास और ऐसा न होने देने के प्रबंधों का विश्वास दिलाने वाली होती हैं। भागवत की भागवत के ताजे अध्याय में ऐसा कुछ नहीं है। एक तरह के दिखावे और झांसा देने के बजाय सचमुच में करना होता, वे तभी न ऐसा करते!! ऐसा नहीं करना है, इसलिए अब वेदों, पुराणों, ग्रंथों, स्मृतियों और संहिताओं में कही गयी बातों के लिए आभासीय शत्रु को गढ़ना है। इसके बाद भी इरादा बदलने का, या जो त्याज्य है, उसे तजने का नहीं है ; खंजर की मूठ पर मखमल लपेट कर उसकी नोंक और धार पर चंदन का अभिषेक करने का है। ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ की अमानवीयता को मानवीय मुखौटा पहनाकर उसी काम को जारी रखना है। सार यथावत बरकरार रखते हुए रूप को बहुरुपिया बनाना है।
क्योंकि भागवत जी जो भागवत बांच रहे हैं, वह उनके संगठन आरएसएस की लिखी-पढ़ी पटकथा से अलग है। जिन ग्रंथों के पुनरीक्षण से पुनर्लेखन तक की आवश्यकता वे प्रतिपादित कर रहे हैं, ये वे ही ग्रन्थ हैं, जिनके आधार पर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के एकमात्र उद्देश्य को हासिल करने के लिए उनका संगठन अस्तित्व में आया है। स्वयं भागवत का संगठन आरएसएस इन ग्रंथों की प्रामाणिकता और प्रासंगिकता दोनों के बारे में एकदम दृढ़प्रतिज्ञ है ; इन्हे अपौरुषेय मानता है। इन्हे इनके वर्तमान रूप में स्वीकारने से मुकरने के साथ क्या भागवत अपने ही सावरकर और गोलवलकर जैसे पुरखों के कहे-लिखे का खंडन करेंगे? क्या उन्हें याद नहीं कि उनके आराध्य और हिन्दुत्व, शब्द जिसका खुद उनके अनुसार हिन्दू धर्म की परंपराओं से कोई संबंध नहीं, के जनक सावरकर ने कहा था कि “मनुस्मृति वह शास्त्र है, जो हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाज, विचार और व्यवहार का आधार बना हुआ है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दैवीय पथ को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिन्दू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। यह मौलिक है।” क्या भागवत जब बोल रहे थे, तब उन्हें पता नहीं था कि उनके प.पू. गुरुजी गोलवलकर वर्णाश्रम की ताईद करते हुए कह गए हैं कि “आज हम अज्ञानतावश वर्ण व्यवस्था को नीचे गिराने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह इस प्रणाली के माध्यम से था कि स्वामित्व को नियंत्रित करने का एक बड़ा प्रयास किया जा सकता था … समाज में कुछ लोग बुद्धिजीवी होते हैं, कुछ उत्पादन और धन की कमाई में विशेषज्ञ होते हैं और कुछ में श्रम करने की क्षमता है। हमारे पूर्वजों ने समाज में इन चार व्यापक विभाजनों को देखा। वर्ण व्यवस्था का अर्थ और कुछ नहीं है, बल्कि इन विभाजनों का एक उचित समन्वय है और व्यक्ति को एक वंशानुगत के माध्यम से कार्यों का विकास जिसके लिए वह सबसे उपयुक्त है, अपनी क्षमता के अनुसार समाज की सेवा करने में सक्षम बनाता है। यदि यह प्रणाली जारी रहती है, तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके जन्म से ही आजीविका का एक साधन पहले से ही आरक्षित है।”(ऑर्गनाइज़र, 2 जनवरी, 1961, पृष्ठ 5 और 16 में प्रकाशित)
भागवत यदि अपनी बात के प्रति संजीदा है, तो कायदे से उन्हें मनुस्मृति सहित उन सारे ग्रंथों की निंदा और भर्त्सना करना चाहिये, जिनके नाम पर, जिनके लिखे के आधार पर सदियों तक इस जम्बूद्वीपे भारतखंडे की जनता के 90 फीसद हिस्से को सताया गया। देश, उसकी सभ्यता, उसकी मनुष्यता को बेड़ियों में बांधकर कर करीब डेढ़ हजार वर्ष तक उसकी प्रगति को अवरुद्ध करके रखा। वे तनिक भी गंभीर हैं, तो उन्हें इन सबको महान हिन्दू धर्म की अनुल्लंघनीय परम्परा और पहचान बताने वाले सावरकर और गोलवलकर के कहे का खंडन करना चाहिए , उनके कहे को गलत और अनुचित बताना चाहिये ?
मगर वे इनमे से कुछ भी नहीं करेंगे। उनका मकसद अर्थ बदले बिना सिर्फ शब्द परिवर्तन का है। थोड़ा सा पावडर, जरा सी क्रीम पोत कर बाहरी कुरूपता को ढांपने और इस तरह अरक्षणीय की रक्षा कर उसे बदस्तूर जारी रखने का है। यह भाषाई शुद्धिकरण की कोशिश है, कुरीतियों के खात्मे या सुधार का इरादा नहीं है। नागपुर में दिए गए उनके भाषण का असली मकसद भुलावा देकर उस समग्र हिन्दू एकता का निर्माण करना है, जो अपने असली अर्थ में खुद हिन्दू समाज की तीन-चौथाई आबादी के खिलाफ है। मनुस्मृति से दिखावटी दूरी बनाना है, ताकि बाद में उसी मनुस्मृति के मुताबिक़ उस राज की स्थापना की जा सके, जिसे वे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं। उनका मक़सद भारतीय समाज के बड़े हिस्से में इस कथित हिंदूराष्ट्र के विरूद्ध खदबदा रहे आक्रोश को भटकाना था – जो इतना आसान काम नहीं है, जितना वे समझ रहे हैं। इसलिए वे गप्प और कहानियां गढ़ रहे हैं। उन्हें शायद पता नहीं कि देश के एक बड़े शायर क़ैफ़ भोपाली साहब कह गए हैं कि :
“ये दाढ़ियां, ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नही चलतीं।”
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