*(नजरिया : बृंदा करात, अंग्रेजी से भावानुवाद : संजय पराते)*
जिन राज्यों में गैर-भाजपा दल शासन कर रहे हैं, वहां केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार के दिशा-निर्देशन में नीतिगत और शासन के मामलों में राज्यपालों द्वारा अभूतपूर्व ढंग से हस्तक्षेप किया जा रहा है। पहले बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान, तेलंगाना, दिल्ली, पुडुचेरी और निश्चित रूप से अब केरल — ऐसे राज्य हैं, जिनका उल्लेख “राज्यपाल-रोग” से पीड़ित राज्यों के रूप में किया जा सकता है। यह रोग कई रूपों में प्रकट हो रहा है। इनमें से कुछ उदाहरण इस तरह हैं : विधायिका द्वारा पारित विशिष्ट अधिनियमों द्वारा शासित शैक्षणिक संस्थानों के विधिवत नियुक्त अधिकारियों को 24 घंटे के भीतर इस्तीफा देने का आदेश देना, ऐसा आदेश देने का अधिकार संविधान ने राज्यपाल को नहीं दिया है और यह राज्यपाल द्वारा संविधानेत्तर शक्तियों को हथियाने का प्रयास है ; अलाने और फलाने मंत्री से “मैंने अपनी खुशी वापस ले ली है” – जैसे विचित्र बयानों के बाद, उन्हें पद से हटाने के लिए मुख्यमंत्री को निर्देश देना, जबकि औपनिवेशिक “खुशी का सिद्धांत” सिविल सेवकों पर लागू होता है, न कि निर्वाचित मंत्रियों पर ; निर्वाचित राज्य सरकार के खिलाफ सार्वजनिक आलोचना की दैनिक खुराक जारी करना और सरकार के कामकाज में बाधा डालना ; राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों की स्वीकृति में देरी करने के लिए, “मेरे पास पूर्ण विवेक और शक्ति है”- जैसे बेहूदा तर्क देना ; या यह नीतिगत घोषणा करना कि कोरोना टीका का डोज लगवाने वालों को ही सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा ; आदि।
लेकिन इस “गवर्नर-रोग” को किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत व्यक्तित्व-विशेषता की कमजोरी तक सीमित रखना और भारत के संविधान को कमतर आंकना गलत होगा। व्यक्तिगत स्तर पर कोई व्यक्ति सबसे सभ्य और अच्छा इंसान हो सकता है। लेकिन वास्तव में यह केंद्र सरकार द्वारा राज्यों में चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने का एक नपा -तुला और सधा राजनैतिक कदम है, क्योंकि भाजपा का मिशन 2024 किसी भी तरह से सभी गैर-भाजपा सरकारों को निगलना है। इसके लिए एक तरीका हमने विधायकों की खरीद-फरोख्त का देखा है। 2014 के बाद से 12 राज्यों में भाजपा ने ऐसे प्रयास किए हैं और राजस्थान और झारखंड के दो मामलों को छोड़कर सभी में वह सफल रही है।
दूसरा तरीका यह है कि सत्तारूढ़ दल की इच्छाओं के आगे झुकने से इंकार करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं को निशाना बनाने के लिए भाजपाई त्रिशूल – सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय – का इस्तेमाल किया जाए। जो लोग असम के वर्तमान मुख्यमंत्री या तृणमूल नेताओं की तरह कमल की ओर पाला बदलते हैं, तो वे पहले के सभी आरोपों और मामलो से बरी होकर शुद्धतम बन जाते हैं और जब तक वे अच्छे बच्चे बने रहते हैं, उनके खिलाफ तमाम मामले ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं।
तीसरा और अधिक हालिया प्रयास “गवर्नर-रोग” को उजागर करता है, जिसका प्रमुख लक्ष्य राज्यों में अस्थिरता पैदा करना है। इस पद्धति का एक और मूलभूत पहलू है, जो भाजपा के केंद्रीकरण के एजेंडा से जुड़ता है और संविधान के संघीय चरित्र पर हमला करता है। केंद्रीकरण का एक प्रमुख लक्ष्य है, शिक्षा पर हमला और शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को बेरहमी से कुचलना। भाजपा ने भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायीकरण, सांप्रदायिकता और केंद्रीकरण के जहरीले मिश्रण को पेश करने के अपने एजेंडे को प्राथमिकता दी है। इसके लिए उसे इन संस्थाओं का नेतृत्व करने के लिए अपने स्वयं के चुने हुए लोगों की आवश्यकता है। गुजरात में यही हुआ था, जब मोदी मुख्यमंत्री थे। गुजरात विश्वविद्यालय अधिनियम के तहत, किसी कुलपति की नियुक्ति करना राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है और राज्यपाल की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। गुजरात में आज भी यही स्थिति है। लेकिन अब शिक्षा के क्षेत्र में भाजपा के केंद्रीय एजेंडे का कैनवास गुजरात से आगे पूरे देश में फैल गया है। इसके लिए मोदी सरकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का उपयोग पूरे भारत में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपालों की भूमिका को मजबूत करने के लिए कर रही है, भले ही इसका मतलब है — अपनी ही राज्य सरकारों पर ऊपर से शासन करना। हाल ही में, गुजरात में एसपी विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति से संबंधित एक विशेष व्यक्तिगत मामले में, मार्च 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर इस नियुक्ति को रद्द कर दिया कि उसने यूजीसी के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया है। यह निर्णय एक खतरनाक मिसाल कायम करता है, क्योंकि यह विभिन्न विश्वविद्यालयों को संचालित करने वाले राज्य के कानूनों पर यूजीसी के दिशा-निर्देशों की सर्वोच्चता को कायम रखता है। यह पूरी तरह से केंद्रीकरण के ढांचे के अनुकूल है। गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने अभी तक इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं की है।
यह कोई संयोग नहीं है कि लगभग सभी गैर-भाजपा राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच उच्च शिक्षा के क्षेत्र में टकराव पैदा हो गया है। विपक्ष द्वारा शासित कम-से-कम पांच राज्यों में – 2019 में बंगाल, दिसंबर 2021 में महाराष्ट्र, इस साल की शुरुआत में तमिलनाडु, हाल ही में तेलंगाना में, और अब केरल में, उच्च शिक्षण संस्थानों में कुलपतियों की नियुक्ति की कानूनी प्रक्रिया पर केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के माध्यम से किए जा रहे अतिक्रमण के खिलाफ राज्य सरकारों को विरोध करने और अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
इससे राज्यपालों की नियुक्ति की वर्तमान पद्धति और उनकी शक्तियों पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग की व्यापक सिफारिशों के बाद, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एम पुंछी के नेतृत्व में अप्रैल 2007 में एक दूसरा आयोग गठित किया गया था। इसने मार्च 2010 में 247 सिफारिशों वाली अपनी रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट के उस खंड को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा, जो राज्यपालों की नियुक्ति और उनको हटाने से संबंधित है।
पहली और सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश यह है कि “राज्यपाल पद पर नियुक्ति पाने वाले व्यक्ति को अपनी नियुक्ति से कम-से-कम दो साल पहले तक सक्रिय राजनीति (स्थानीय स्तर की राजनीति से भी) से दूर रहना चाहिए।” अगर यह सिफारिश लागू हो जाती है, तो देश को “गवर्नर-रोग” के हमले से बचाया जा सकता है। अब यदि हम भाजपा द्वारा नियुक्त राज्यपालों की सूची को देखेंगे, तो ऊपर वर्णित राज्यों में, प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, भाजपा के एक प्रमुख सदस्य के रूप में सक्रिय राजनीति में रहा है। यह दावा किया गया था कि केरल का राज्यपाल एक अपवाद हैं, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन की प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार ही, वे 2004 में भाजपा में शामिल हो गए थे और उन्होंने पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था, हालांकि असफल रहे और “दागी” लोगों को टिकट देने के विरोध में 2007 में उन्होंने भाजपा छोड़ दी थी। नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद 2015 में वे फिर से इसमें शामिल हो गए।
राज्यपाल अपनी नियुक्ति पर जो शपथ लेता है, वह यह है कि वह “संविधान की संरक्षा, सुरक्षा और बचाव” करेगा/करेगी और “अपने आप को (उस राज्य का नाम जिसमें उसे राज्यपाल नियुक्त किया गया है) सेवा और लोगों की भलाई के लिए समर्पित करेगा/करेगी। राज्यपाल के रूप में नियुक्त एक सक्रिय राजनेता के उस राज्य में अपनी पार्टी के हितों की सेवा करने की ही अधिक संभावना होती है, न कि आम जनता की सेवा करने की, जैसा कि प्रतिज्ञा में घोषित किया गया है। इसलिए इस प्रतिज्ञा का सम्मान करने के लिए यह सिफारिश लागू करना आवश्यक है। इसका मतलब होगा कि मोदी सरकार को केंद्र द्वारा नियुक्त लगभग सभी राज्यपालों को हटाना पड़ेगा।
पुंछी आयोग की दूसरी महत्वपूर्ण सिफारिश यह है कि “राज्यपाल की नियुक्ति करते समय राज्य के मुख्यमंत्री की सहमति होना चाहिए।” यदि इसे लागू किया गया होता और राज्यपाल की नियुक्तियों में मुख्यमंत्रियों की हामी ली जाती, तो जिन लोगों को चुनावी जनादेश प्राप्त होता है, उनका राजभवनों में लगातार चक्कर काटने से कितना समय और ऊर्जा बच जाता!
वर्तमान चर्चा के लिए तीसरी और बहुत प्रासंगिक यह सिफारिश है कि “विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपालों की नियुक्ति की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए।” शिक्षा समवर्ती सूची में है। शैक्षणिक अधिकारियों की नियुक्ति सहित अपने राज्य के शिक्षा संस्थानों के विकास में राज्य सरकारों की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राज्यों का यह एक संवैधानिक अधिकार है, जिसे संरक्षित किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के जरिए वर्तमान हमले से उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता की रक्षा के लिए विपक्षी दलों को व्यापक शैक्षणिक समुदाय के साथ एकजुट होना चाहिए। इसे एक राज्य या पार्टी के मुद्दे के रूप में देखना अदूरदर्शी होगा।
*(बृंदा करात माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य और राज्यसभा की पूर्व सदस्य हैं।)*
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